Sunday 28 February 2016

Budhia Singh Biography in Hindi : बुधिया सिंह

Budhia Singh Biography in Hindi : बुधिया सिंह

ये “बुधिया” नाम सुनकर कुछ याद आया आपको? नहीं न .. हमारा देश बहुत जल्दी किसी को भी भूलने में माहिर है– क्यूँ की इस देश के लोगों को भूलने की आदत जो है. जिस बालक ने किसी समय साढ़े चार साल की उम्र में (4.5वर्ष) 65 किलो मीटर की दूरी सात घंटे दो मिनट में तय करके नया Records बना कर Media (मीडिया) में छा गया था. आज गुमनामी के अंधेरे में गुम है जो बालक भविष्य में ओलंपिक (Olympics) पदक दिला सकता था, आज वो सरकारी हॉस्टल में कुपोषण का शिकार है.

बुधिया सिंह (Budhia Singh)  के कोच बेरंची दास की भी हत्या कर दी गयी थी, और इस होनहार बालक की गुमनामी के अँधेरे में धकेल दिया गया था.

आईये जानते हैं इस होनहार बालक की पूरी कहानी”

बुधिया सिंह (Budhia Singh) :
Budhia Awooga Singh is an Indian boy and the Wolrd’s youngest marathon runner Budhia Singh was born in the State of Odisha.
बुधिया सिंह (Budhia Singh) भारत के ओडिशा राज्य का एक शिशु मैराथन धावक है, इस नन्हे साढ़े चार साल के बालक बुधिया सिंह ने 65 किलोमीटर की दुरी 7 घंटे 2 मिनट में तय करके पूरी दुनिया में छा गया था.
Early Life : प्रारंभिक जीवन
बुधिया सिंह  (Budhia Singh) भारत के ओडिशा State का एक शिशु है मैराथन धावक है, दोस्तों बुधिया सिंह (Budhia Singh) का नाम एक लम्बी दोड़ के लिए, लिम्का बुक ऑफ़ वर्ल्डस रिकार्ड्स में भी शामिल है.
बुधिया सिंह  (Budhia Singh) का जन्म एक बहुत गरीब परिवार में हुआ. वह एक अत्यनत गरीब परिवार का बेटा है जिसे उसकी माँ सुकांति सिंह ने अपने बेटे को मात्र 800 रुपए में एक आदमी को बेच दिया था.  बाद में एक स्थानीय खेल के कोच Biranchi Das (बिरंची दास) की नजर बुधिया पर पड़ी. बिरंची दास ने बुधिया सिंह  (Budhia Singh) को गोद लिया और उनके देख रेख में उसने मैराथन दोड़ने का Training लिया
बुधिया सिंह (Budhia Singh) ने चार बजे पूरी स्थित जगन्नाथ मंदिर के सिंह द्वार से अपनी दोड़ शुरू की और सात घंटे दो मिनट बाद राजधानी भुवनेश्वर पहुंचे.
दोस्तों इतिहास गवाह है की इस उम्र का कोई भी बच्चा ऐसा records नहीं बना पाया है, यह बड़ी उपलब्धि सिर्फ और सिर्फ ओड़िसा के इस नन्हे बालक ने हासिल की, और साथ ही साथ इन्होने Limca Book of World’s Records में भी अपना नाम दर्ज करवाया. बुधिया सिंह  (Budhia Singh) ने जब पूरी से अपनी दोड़ शुरू की थी, तो बड़ी संख्या में लोग वहां मौजूद थे, लोगों ने सिर्फ Budhia Singh का उत्सह नहीं बढाया बल्कि उसके समर्थन में नारे भी लगाये.  यहाँ तक की बुधिया सिंह (Budhia Singh) के समर्थन में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (CRPF) के कम से कम 220 जवान भी बुधिया के नैतिक समर्थन में उसके साथ दोड़ लगा रहे थे. इस आयोजन को कवर करने के लिए वहां media (मेडिया) भी मौजूद थी. जिसे CRPF प्रायोजित कर रहा था, भुवनेश्वर पहुँचने के बाद बुधिया सिंह (Budhia Singh) को अस्पताल ले जाया गया जहाँ उसकी परीक्षण किया गया. बुधिया सिंह (Budhia Singh)  दिल्ली हाफ मैराथन सहित कई दोडों में हिस्सा ले चूका है.

Top 10 Important Point About Budhia Singh: रोचक जानकारी बुधिया सिंह की
•बुधिया सिंह (Budhia Singh) की प्रतिभा की खोज कैसे हुयी, ये कहानी कम रोचक नहीं हैं घरो में बर्तन माजने का काम करने वाली उसकी माँ ने गरीबी से तंग आकर इस महान बालक को सिर्फ 800 रुपए में बेच दिया था.
•भुवनेश्वर में ही रहेने वाले एक जुड़ों के कोच बिरंची दास की नजर (Budhia Singh) पर पड़ी, और इन्होने ही इस प्रतिभावन बालक को गोद ले लिया.
•बुधिया सिंह (Budhia Singh) ने साढ़े चार साल की उम्र में 65 किलोमीटर की दूरी सिर्फ सात घंटे दो मिनट में तय की थी.
• (Budhia Singh) बुधिया सिंह के इस कारनामे की वजह से उनका ये records Limca Book Of World’s Records में शामिल किया गया.
•बुधिया सिंह (Budhia Singh) के कोच Biranchi Das का कहेना है की उन्होंने दुसरे बच्चों को तंग करने के लिए बुधिया सिंह (Budhia Singh) को कई बार डांट भी लगायी थी, एक बार नाराज होकर उन्होंने (Budhia Singh) को दोड़ लगाने की सजा दी और कहा की जब तक मना न किया जाए वह दोड़ता रहे, Biranchi Das बताते हैं की में किसी काम में Busy होगया जब पांच घंटे बाद में लोटा तो दंग रह गया, वह दोड़ता ही जारहा था.
•बिरंची दास का दावा था की उन्होंने बुधिया सिंह (Budhia Singh)  की प्रतिभा को सजाया और संवारा. कई बार बिरंची दास पर आरोप भी लगा था की उन्होंने अपने फायेदे के लिए बुधिया सिंह को इस्तिमाल किया, हालांकि बिरंची दास इन आरोपों से हमेशा इनकार करते रहे.
•बिरंची दास ने ही बुधिया को गोद लिया था, उनके ही देख रेख में Budhia Singh ने मैराथन दोड़ने का Training लिया, 13 अप्रैल 2008 शाम को भुवनेश्वर में बिरंची दास की रहेस्यमय तरीके से गोली मार कर हत्या कर दी गयी थी.
•बिरंची दास की हत्या के हत्यारों की खोज (संदीप आचार्य उर्फ़ राजा, और उसके सहयोगी अखाया बेहरा उर्फ़ चागला) की गिरफ्तारी ने पुरे देश में हल चल मचा दिया था.
•13 दिसम्बर 2010 को भुवनेश्वर फ़ास्ट ट्रैक (Fast Track) अदालत ने हत्यारों को दोषी पाया गया, और अंतिम 17 दिसम्बर 2010 को पारित किया गया था, दोनों दोषी राजा और उसके सहयोगी Chagala को कठोर आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी थी.
•जो बालक भविष्य में ओलंपिक पदक दिला सकता था, आज वो सरकारी हॉस्टल में कुपोषण का शिकार है, आज इस होनहार बालक को गुमनामी के अँधेरे में धकेल दिया गया है.
•एक वक्त था की (Budhia Singh) के चर्चा में आते ही विभिन्न संस्थानों ने उसके लिए ढेरों कोष बनाने की घोषणाएं की थी, media में चर्चा ही चर्चा था, लेकिन आज वही होनहार बालक गुमनामी के अँधेरे में गुम होगया है. आज बुधिया सिंह की उम्र 13-14 होगई है

दोस्तों आप सभी से मेरी गुजारिश है प्लीज इसे जियादा से जियादा share करें ताकि इस बालक को गुमनामी के अँधेरे से निकालने में मदद मिले, जरा सोचना की आपका एक छोटी सी कोशिश बहुत बड़ा काम कर सकती है.”

हमारे कार्य से अगर एक इंसान को भी फायदा होता है तो वो कार्य हमे जरूर करना चाहिए

हमारे कार्य से अगर एक इंसान को भी फायदा होता है तो वो कार्य हमे जरूर करना चाहिए

आज का इंसान इतना सेलफिश हो चुका है कि सिर्फ अपने फायदे के बारे में सोचता है वह जो भी कार्य करता है वह उन्हें खुश करने के लिए करता है  जिनसे उसे फायदा हो । लेकिन महान लोग वो होते है जो गरीब लाचार लोगो के लिए कुछ करते हो । जब आप गरीब व् लाचार लोगो के लिए कुछ करते हो तो इससे  आप को आत्मस्तुस्टी मिलेगी जिससे आप जीवन में सदा खुश रहोगे । एक
 चीनी कहावत है की अगर आप कुछ घंटो की शांति चाहते हो तो एक झपकी लेलो और अगर एक सपताह की शांति चाहिए तो पिकनिक पर चले जाए और अगर उम्र भर कुछ रहना चाहते हो तो किसी अनजान जरूरत मद की मदद कर दो ।
 एक कबीर जी का दोहा है
     ,, जब हम जगत में जगत में जगत हँसा हम रोये, ऐसी करनी कर चलो हम हँसे जग रोए ,,
 और विन्सेंट ने कहा है की जो लोग खुद के लिए जीते है वे ही असफल हैं । 

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समाज के लिए तभी कुछ किया जा सकता है जब हमारी सोच पॉजिटिव होगी

समाज के लिए तभी कुछ किया जा सकता है जब हमारी सोच  पॉजिटिव होगी

जब इंसान की सोच पॉजिटिव होती है तभी वह किसी को कुछ देने की सोचता है । और पॉजिटिव सोच में ही ये आता है की हर इंसान को बराबरी का अधिकार मिले । इस अधिकार में सबसे पहले आती हैं  महिलाएं । समाज के निर्माण में महिलाएं कधे से कधा मिलकर पुरषो   के साथ हर काम में  सहयोग दे रही हैं । घर हो आफिस या राजनीती वे हर जगह अपना कर्तव्य निभा रही हैं । सरकार की तरफ से तो बराबरी का दर्जा मिला है  लेकिन   घर में  अभी भी सोच छोटी ही हो जाती है । जेंट्स आफिस से आते ही सोफे पर लेटकर आराम से टी वी देखते हैं और लेडीज़ किचन व् घर की जिम्मेदारियां संभालती हैं । अगर माँ बेटी के साथ साथ बेटे से भी थोड़ी बहुत काम में मदद ले और बहन बेटियों की  वेलु समझाए तो महिलाएं कमजोर नही सस्कत बन कर जी सकती हैं  । इंद्रागाँधी प्रतिभा पाटिल कल्पनाचावला की तरह से  समाज के लिए योगदान  कर सकती हैं । इनकी योग्यता निखारने के लिए सिर्फ आपके स्पॉट की जरूरत है । अगर इन्हे घर में सहयोग मिले तो हो सकता है की आप की माँ बहन  बीबी या बेटी की योग्यता आप से भी अधिक हो एक बार बराबरी का मौका देकर तो देखें ।

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मांगने की बजाए, जिंदगी में देना सीखें

मांगने  की बजाए, जिंदगी में  देना सीखें

जीवन की सबसे सुखद अनुभूति देने में है।  दुनिया  महात्मा गांधी , मदरटरेसा , ए  पी  जे अब्दुल कलाम जैसे देश को कुछ  देने वालो को याद करती है। ना की लेने वालो को  कुछ देने वाले ही समाज को कुछ देकर जाते हैं , जिस से समाज व दुनिया का कुछ भला होता है।  जब हम किसी को निस्वार्थ कुछ देते हैं  या मद्त करते हैं, तो  लेने वाले का  ह्रदय प्रसन्न होता है और वह उसे अंतिरक करण से उसे दुआ देता है । और जो दुआ उसे मिलती है वो उसे यश्स्वी बना देती है।  देने  का मतलब सिर्फ ये नही है की आप किसी की रूपये पैसे से ही मद्त करें। जिसे फाइनेंसियल स्पॉट की जरूरत है तो  करें  जिसे मॉरल स्पॉट की जरूरत है उसे मोरल स्पॉट करें और जिसे फिजिकली  हेल्प चहिए उसे फिजिकली हेल्प करें। देनें का सबसे बड़ा महत्व तो ये है कि जब हम किसी और की मदद करते हैं तो उस से पहले खुद की मद्त हो जाती है।  लेकिन किसी की मदद करते हुए ये जरूर सोचें कि  ये मदद आप क्यों कर रहे हो। मद्त सिर्फ इंसानियत के नाते करें इसे किसी लालच वस या अहसान जताने के लिए ना करें। वरना आप दोस्त से ज्यादा दुश्मन बन जाओगे। एक बात का धयान रहे कि एक हाथ से मदद करते हो तो दूसरे को पता भी नही लगना  चाहिए। वरना आप किसी की मदद कम करोगे और उसे कह अधिक दोगे। और आप का दूसरे लोगो से कहना ही मदद लेने वाले इंसान को अछा नही लगेगा।
 मै आपको अपने एक दोस्त की  आप बीती सुनती हू  मेरे दोस्त ने एक कंपनी डाली । उसे हेल्प की जरूरत थी उसने वो हेल्प अपने किसी बेस्ट फ्रेंड  से ली।  कुछ साल बाद उन दोनों के बीच में किसी तीसरे इंसान की वजह से कुछ दूरिया आ गईं ।  उसने सबके सामने  उसे नीचा दिखाना शुरू कर दिया और लोगो से बोलना शुरु किया  कि हमने इसे बसाया है, हमारे बिना ये कुछ नही कर सकता था।  इस बात से उसे  इतना दुःख हुआ की  वह यही सोचता की इससे अछा था की में उसकी मदद ना लेता  हमेशा उस दिन को कोसता है कि मैने उससे हेल्प क्यों ली  ?ऐसा तो नही था की उसके बिना वो काम न होता। उसने करके, सबसे कहकर कर, करे  कराए पर पानी फेर दिया। जबकि  मेरा   दोस्त उसका  दिल से अहसान मानता था।  और आपस में कोई बात भी नही थी लेकिन उसने  अहसान जता कर  अपनी सारी वेलू खत्म कर दी और कही न कही दोस्ती मे खटास आ गईं । और वह खुद को साबित करने के लिए  वह मदद करने वालो को इग्नोर करके खुद अपना रास्ता चुन कर आगे बढ़ गया । आज उन्हें लगता है कि वो उन्हें अहमियत नही देता ।  इस लिए कहते कि नेकी कर दरया मे फेंक।  अगर आप किसी की हेल्प करते हो तो  उसे बार  बार मत दोहराओ  ।
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Saturday 27 February 2016

जिंदगी में कुछ भी असंभव नहीं है

जिंदगी में कुछ भी असंभव नहीं है – निकोलस वुजिसिक / Nick Vujicic Biography In Hindi

मान लीजिये की एक दिन के लिये अपने जीवन में आपके पास हात और पैर ही नही है. अपने जीवन को बिना हात और पैरो के जीने की कोशिश करे. निश्चित ही आप ऐसा नही कर पाओगे, लेकिन निकोलस वुजिसिक से मिलिये, जिनका जन्म 1982 को मेलबोर्न, ऑस्ट्रेलिया में हुआ, उनका जन्म ही बिना हात और पैरो के हुआ था. कई डॉक्टर उनके इस विकार को सुधारने में असफल हुए. और आज भी निक अपना जीवन बिना हात और पैरो के ही जी रहे है. हात-पैरो के बिना प्रारंभिक जीवन बिताना उनके लिये काफी मुश्किल था. बचपन से ही उन्हें काफी शारीरिक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था. लेकिन उन्होंने कभी अपने इस विकार से हार नही मानी, और हमेशा वे औरो की तरह ज़िन्दगी को जीने की कोशिश करते रहे. निक को हमेशा आश्चर्य होता था की वे दुसरो से अलग क्यू है. वे बार-बार अपने जीवन के मकसद को लेकर प्रश्न पूछा करते थे और उनका कोई उद्देश्य है या नही ये प्रश्न भी अक्सर उन्हें परेशान करता था.
निक के अनुसार, आज उनकी ताकत और उनकी उपलब्धियों का पूरा श्रेय भगवान पर बने उनके अटूट विश्वास को ही जाता है. उन्होंने कहा है अपने अब तक के जीवन में जिनसे भी मिले फिर चाहे वह दोस्त हो, रिश्तेदार हो या सहकर्मी हो, उन सभी ने उन्हें काफी प्रेरित किया.
19 साल की आयु में अपने पहले भाषण से लेकर अब तक निक पुरे विश्व की यात्रा कर रहे है और अपनी प्रेरणादायी घटनाओ से लोगो को प्रेरित कर रहे है. विश्व भर में आज निक के करोडो अनुयायी है, जो उन्हें देखकर प्रेरित होते है. आज युवावस्था में भी उन्होंने बहोत से पुरस्कार हासिल किये है. आज वे एक लेखक, संगीतकार, कलाकार है और साथ ही उनको फिशिंग, पेंटिंग और स्विमिंग में भी काफी रूचि है. 2007 में निक ने ऑस्ट्रेलिया से दक्षिण कैलिफ़ोर्निया की लंबी यात्रा की, जहा वे इंटरनेशनल नॉन-प्रॉफिट मिनिस्ट्री, लाइफ विथआउट लिम्बस के अध्यक्ष बने, जिसकी स्थापना 2005 में की गयी थी. 1990 में उन्होंने अपनी इस बहादुरी के लिये ऑस्ट्रेलियन यंग सिटीजन अवार्ड भी जीता 2005 में यंग ऑस्ट्रेलियन ऑफ़ द इयर पुरस्कार के लिये उनका नाम निर्देशन भी किया गया था.
निक कहते है, “यदि भगवान किसी बिना हात और पैर वाले इंसान का उपयोग अपने हात और पैर समझकर करते है, तो वे किसी के भी दिल का उपयोग कर सकते है.”
जब कभी हमारी ज़िन्दगी में समस्याएँ या मुश्किलें आतीं हैं, तो हम में से ज्यादातर लोग सोचतें हैं कि ऐसा मेरे साथ ही क्यों हो रहा है? यही सोच धीरे-धीरे हमारे अन्दर घोर निराशा पैदा करके हमारी ज़िन्दगी को एक बोझ बना सकती है. ऎसे में जरूरत है कि हम ख़ुद पर भरोसा रखें और अपनी पूरी ताकत के साथ उनका मुक़ाबला करें, और ऐसा तब तक करतें रहें जब तक हम उन पर विजय हासिल ना कर लें. आप सोचेंगे कि यह असंभव है, लेकिन विश्वास मानिए
“जिंदगी में कुछ भी असंभव नहीं है”.
33 वर्षीय निक विजुसिक आज ना सिर्फ़ एक सफल प्रेरक वक्ता हैं, बल्कि वे वह सब करते है जो एक सामान्य व्यक्ति करता है. जन्म से ही हाथ-पैर न होने के बावजूद वे वे गोल्फ व फुटबॉल खेलतें है, तैरते हैं, स्काइडाइविंग और सर्फिंग भी करतें हैं. यह अपने आप में एक उल्लेखनीय उपलब्धि है, लेकिन इससे भी ज्यादा प्रभावित करने वाली बात है, उनकी जीवन के प्रति खुशी और शांति की सम्मोहक भावना. आज वे दुनिया को जिंदगी जीने का तरीका सिखा रहे है.
निक ने भौतिक सीमाओं में जकड़े रहने के बजाए अपने जीवन को नियंत्रित करने की शक्ति पा ली और आशा के इसी संदेश के साथ 44 से अधिक देशों की यात्रा की है.
जहाँ हम छोटी-छोटी बातों से परेशान और हताश हो जाते है वहीँ निक वुजिसिक जैसे लोग हर पल यह साबित करते रहते है कि असंभव कुछ भी नहीं – प्रयास करने पर सब कुछ आसान हो जाता है.
ज़िन्दगी द्वारा दी गयी हर चीज को खुलेमन से स्वीकार करना चाहिए, चाहे वे मुश्किलें ही क्यों ना हों. मुश्किलें ही वो सीढ़ियां हैं जिन पर चढ़कर ही हमे ज़िन्दगी में कामयाबी और खुशी मिलेगी.

गलती से सीखकर, सुधारना ही सुखद जीवन का आधार हैं

गलती से सीखकर, सुधारना ही सुखद जीवन का आधार हैं
एक संत यात्रा पर निकले कई दिनों तक चलने के बाद एक गाँव आया जहाँ उन्होंने विश्राम करने का सोचा उन्होंने अपने शिष्य से गाँव में खबर भिजवाई कि वे किसी सज्जन परिवार के घर भोजन करेंगे | संत को छुआछूत में विश्वास था |

शिष्य यह संदेशा लेकर गाँव के हर एक घर के दरवाजे को ख़ट खटाता हैं और कहता हैं हे सज्जन मेरे गुरुवर आज इसी गाँव में ठहरे हैं और उनका यह व्रत हैं कि वे किसी सज्जन शुद्ध आचरण वाले व्यक्ति के घर का ही भोजन ग्रहण करेंगे |क्या आप उन्हें भोजन करवाएंगे ? इस पर उस गाँववासी ने विनम्रता से हाथ जोड़कर कहा – हे बंधू मैं नराधम हूँ मेरे आलावा इस गाँव में सभी वैष्णव हैं फिर भी अगर आपके गुरु मेरे घर आश्रय ले तो मैं खुद को भाग्यशाली मानूंगा | शिष्य गाँव के हर एक घर गया पर सभी ने खुद को अधम और दूसरों को सज्जन कहा |

शिष्य ने गुरु के पास जाकर पूर्ण विस्तार से पूरी घटना सुनाई यह सुन गुरु गाँव में आये और उन्होंने सभी से क्षमा मांगी कहा – आप सभी सज्जन हैं अधम तो मैं खुद हूँ जो ईश्वर के बनाये इंसानों में भेद कर रहा हूँ | आज आप सभी के साथ रुकना मेरे लिए सौभाग्य होगा इससे मेरा अंतःकरण शुद्ध होगा |

कहानी की शिक्षा :
इन्सान भगवान के बनाये हैं इन में कोई भेद नहीं होता | यह भेद देखने वाले की दृष्टि में होता हैं | यह संसार भगवान की देन हैं इसमें ऊँचा नीचा देखने वाले ही छोटी सोच के लोग हैं |
अपने आपको को इस तरह के अज्ञान से दूर करे जब भी अपनी गलती का अहसास हो उसे सुधारे जैसे कहानी में संत ने किया | गलती सभी से होती हैं पर उसे स्वीकार कर ठीक करने वाल महान होता हैं |

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संदीप माहेश्वरी उद्धरण या अनमोल विचार

संदीप माहेश्वरी उद्धरण या अनमोल विचार
Quote 1.  जो भी काम करें उसमे अपना 100% समय या परिश्रम दे सफल हो जाएंगे.
Sandeep Maheshwari संदीप माहेश्वरी
Quote 2. जैसे कार में पेट्रोल की जरूरत होती ना कम ना ज्यादा उसी प्रकार पैसा भी ना कम होना चाहिए ना ही ज्यादा.
Sandeep Maheshwari संदीप माहेश्वरी
Quote 3. किसी का इन्तजार ना करों, ना ही किसी के कहने पर मैदान छोडो बस चलते रहो.
संदीप माहेश्वरी के विचार
Quote 4. जहाँ भी जाओं एक ही नियम अपनाओं – अच्छा बोलो, अच्छा सनुो, अच्छा देखो.
Sandeep Maheshwari Quote
Quote 5. अगर आपने आज अपनी आदत बदल ली तो आप कल जरुर बदलेंगे लेकिन अगर आपने आज भी आप वैसे है तो आप के साथ कल भी वही होगा जो आह हो रहा है.
 संदीप माहेश्वरी सुविचार
Quote 6. आप तो बस काम कीजिए, कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता लोगों का काम है ताली बजाना उन्हें तो बजाना पड़ेगा.
Quote 7. दुनियां को जैसे देखेंगे, दुनिया वैसी ही दिखाई देगी.
Quote 8. सफलता और असफलता का एक नियम है – सफलता हमेशा अकेले में गले लगाती है बल्कि असफलता दूसरों के सामने गले लगती है.

Sandeep Maheshwari संदीप माहेश्वरी
Quote 9. अगर आप ने मन में इच्छा कर रखी है कुछ करने की तो आप कुछ नहीं आकर पाएंगे लेकिन अगर आपने निर्णय किया तो थोडा बहुत बदलाव आयगा और अगर आप ने निश्चय कर लिया तो सबकुछ बदल जाएगा.
Quote 10. आप प्रयास कर रहे है इसका पता आपकी गलतियों से लगता है.
Quote 11. अगर आप अपनी सोच नहीं बदल सकते तो जिंदगी नहीं बदल सकते.
Sandeep Maheshwari संदीप माहेश्वरी
Quote 12. महान बनना है तो दूसरों से आदेश लेना बाद करें.
Quote 13. अगर आपके पास कुछ भी जरूरत से ज्यादा है तो उस ज्ञान या जो भी दूसरों के साथ शेयर करें.
Quote 14. कोई भी ऐसी पहाड़ नहीं है जिसे चढ़ना मुश्किल है चलिए शिखर पर मिलते है.
Quote 15. आप एक ऐसे इंसान या शक्ति को खोज रहे जो आपकी जिंदगी बदल दे तो आप खुद है.
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Friday 26 February 2016

हर सफल व्यक्ति के पीछे उसकी असफलताओं की भी कहानी होती है।

हर सफल व्यक्ति के पीछे उसकी असफलताओं की भी कहानी होती है।

जब हम किसी सफल व्यक्ति को देखते हैं तो केवल उसकी सफलता को देखते हैं। इस सफलता को पाने की कोशिश में वह कितनी बार असफल हुआ है, यह कोई जानना नहीं चाहता। जबकि असफलता का सामना करे बिना शायद ही कोई सफल होता है।

  अमेरिका के रोनाल्ड रीगन फिल्मों में अभिनेता थे। पहली बार गवर्नर का चुनाव लड़े तो लोगों ने हंसी उड़ाई, लेकिन वे जीत गए। दो बार गवर्नर रहने के बाद जब उन्होंने राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने का फैसला किया तो पार्टी ने उन्हें प्रत्याशी नहीं बनाया। चार साल बाद फिर उन्होंने कोशिश की, फिर भी कामयाबी नहीं मिली।
 चार साल बाद उन्होंने फिर कोशिश की और सफल हुए और भारी बहुमत से अमेरिका के राष्ट्रपति बने। हमारे यहां भी इस तरह के कई उदाहरण हैं जो कई असफलताओं के बाद सफल हुए। भारतीय फिल्मों के महानायक अमिताभ बच्चन ने अपने करियर की शुरुआत में लगातार नौ असफल फिल्में दीं, फिर वे सफल हुए। ऐसे कई उदाहरण हैं। असफलता, सफलता के साथ-साथ चलती है।
 आप इसे किस तरह से लेते हैं, यह आप पर निर्भर करता है, क्योंकि हर असफलता आपको कुछ सिखाती है। असफलता में राह में मिलने वाली सीख को समझकर जो आगे बढ़ता जाता है वह सफलता को पा लेता है। सफलता के लिए जितना जरूरी लक्ष्य और योजना है, उतना ही जरूरी असफलता का सामना करने की ताकत भी।

 जिस दिन आप तय करते हैं कि आपको सफलता पाना है, उसी दिन से अपने आपको असफलता का सामना करने के लिए तैयार कर लेना चाहिए, क्योंकि असफलता वह कसौटी है जिस पर आपको परखा जाता है
 कि आप सफलता के योग्य हैं या नहीं। यदि आप में दृढ़ इच्छाशक्ति है और आप हर असफलता की चुनौती का सामना कर आगे बढ़ने में सक्षम हैं तो आपको सफल होने से कोई नहीं रोक सकता। तो हो जाइए तैयार सफलता की राह में आने वाली मुश्किलों का सामना करने के लिए, क्योंकि हर सफल व्यक्ति के पीछे उसकी असफलताओं की भी कहानी होती है।

गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में ।
वो तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले ।।

 अंग्रेज़ी की एक प्रेरक कहावत है- 'स्ट्रगल एंड शाइन।' यह वाक्य हमें बड़ी शक्ति देता है, जिंदगी में आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। जीवन में कठिनाईयां तो आती ही हैं और कभी-कभी तो इतने अप्रत्याशित कि संभलने का भी पूरा समय नहीं मिलता। यही तो जीवन की ठोकरें हैं जिन्हें खाकर ही हम संभलना सीख सकते हैं। उनसे बचने की कोशिश तो करना है, पर ठोकर कहते ही उसे हैं जो सावधानी के बाद भी लगती है और आखिर एक नई सीख भी दे जाती है।

 कभी-कभी जीवन में मुश्किलें एक के बाद एक या एक साथ भी कई आ जाती हैं और हम अपने आपको उनके जंगल में राह भटके हुए की तरह भ्रमित होते रहते हैं।

 जब हमें जीवन के कड़वे अनुभव होते हैं या कोई ठोकर लगती है तो उस समय हम हो सकता है कि विचलित हो जाएं, इससे उबरकर सीख भी मिलती है और जीवन में मुश्किलों का सामना करने का साहस भी आता है। फिर हम पाते हैं कि हमारी क्षमता भी बढ़ गई है और जीवन में हम और भी सफलता हासिल कर रहे हैं। तो मुश्किलों से घबराएं, नहीं बल्कि उनका सामना करें। आप पाएंगे कि आपको उन मुश्किलों ने और भी निखार दिया है।

 रसायन शास्त्र का एक नियम है, जो जिंदगी पर भी लागू होता है। जब कोई अणु टूटकर पुन: अपनी पूर्व अवस्था में आता है तो वह पहले से अधिक मज़बूत होता है। इसी तरह हम जब किसी परेशानी का सामना करने के बाद पहले से अधिक मज़बूत हो जाते हैं और जीवन में और भी तरक्की करते हैं।

मंजिल मिल ही जायेगी भटकते ही सही, गुमराह तो वो है जो घर से निकले ही नहीं...

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Thursday 25 February 2016

प्लेट में खाना छोड़ने से पहले Ratan Tata का ये संदेश ज़रूर पढ़ें

प्लेट में खाना छोड़ने से पहले Ratan Tata का ये संदेश ज़रूर पढ़ें

Ratan tata


दुनिया के जाने-माने industrialist Ratan Tata ने अपनी एक Tweet के माध्यम से एक बहुत ही inspirational incident share किया था। आज मैं उसी ट्वीट का हिंदी अनुवाद आपसे शेयर कर रहा हूँ
जर्मनी एक highly industrialized देश है। ऐसे देश में, बहुत से लोग सोचेंगे कि वहां के लोग बड़ी luxurious लाइफ जीते होंगे।
जब हम हैम्बर्ग पहुंचे, मेरे कलीग्स एक रेस्टोरेंट में घुस गए, हमने देखा कि बहुत से टेबल खाली थे। वहां एक टेबल था जहाँ एक यंग कपल खाना खा रहा था। टेबल पर बस दो dishes और beer की दो bottles थीं। मैं सोच रहा था कि क्या ऐसा सिंपल खाना रोमांटिक हो सकता है, और क्या वो लड़की इस कंजूस लड़के को छोड़ेगी!
एक दूसरी टेबल पर कुछ बूढी औरतें भी थीं। जब कोई डिश सर्व की जाती तो वेटर सभी लोगों की प्लेट में खाना निकाल देता, और वो औरतें प्लेट में मौजूद खाने को पूरी तरह से ख़तम कर देतीं।
चूँकि हम भूखे थे तो हमारे लोकल कलीग ने हमारे लिए काफी कुछ आर्डर कर दिया। जब हमने खाना ख़तम किया तो भी लगभग एक-तिहाई खाना टेबल पर बचा हुआ था।
जब हम restaurant से निकल रहे थे, तो उन बूढी औरतों ने हमसे अंग्रेजी में बात की, हम समझ गए कि वे हमारे इतना अधिक खाना waste करने से नाराज़ थीं।
” हमने अपने खाने के पैसे चुका दिए हैं, हम कितना खाना छोड़ते हैं इससे आपका कोई लेना-देना नहीं है।”, मेरा कलीग उन बूढी औरतों से बोला। वे औरतें बहुत गुस्से में आ गयीं। उनमे से एक ने तुरंत अपना फ़ोन निकला और किसी को कॉल की। कुछ देर बाद, Social Security Organisation का कोई आदमी अपनी यूनिफार्म में पहुंचा। मामला समझने के बाद उसने हमारे ऊपर 50 Euro का fine लगा दिया। हम चुप थे।
ऑफिसर हमसे कठोर आवाज़ में बोला, “उतना ही order करिए जितना आप consume कर सकें, पैसा आपका है लेकिन संसाधन सोसाइटी के हैं। दुनिया में ऐसे बहुत से लोग हैं जो संसाधनों की कमी का सामना कर रहे हैं। आपके पास संसाधनों को बर्वाद करने का कोई कारण नहीं है।”
इस rich country के लोगों का mindset हम सभी को लज्जित करता है। हमे सचमुच इस पर सोचना चाहिए। हम ऐसे देश से हैं जो संसाधनों में बहुत समृद्ध नहीं है। शर्मिंदगी से बचने के लिए हम बहुत अधिक मात्रा में आर्डर कर देते हैं और दूसरों को treat देने में बहुत सा food waste कर देते हैं।
(सौजन्य: एक दोस्त जो अब बहुत बदल गया है)
The Lesson Is – अपनी खराब आदतों को बदलने के बारे में गम्भीरता से सोचें। Expecting acknowledgement, कि आप ये मैसेज पढ़ें और अपने कॉन्टेक्ट्स को फॉरवर्ड करें।
Very True- “MONEY IS YOURS BUT RESOURCES BELONG TO THE SOCIETY / पैसा आपका है लेकिन संसाधन समाज के हैं।”
दोस्तों, कोई देश महान तब बनता है जब उसके नागरिक महान बनते हैं। और महान बनना सिर्फ बड़ी-बड़ी achievements हासिल करना नही है…महान बनना हर वो छोटे-छोटे काम करना है जिससे देश मजबूत बनता है आगे बढ़ता है। खाने की बर्बादी रोकना, पानी को waste होने से बचाना, बिजली को बेकार ना करना…ये छोटे-छोटे कदम हैं जो देश को मजबूत बनाते हैं।

आइये Ratan Tata जी द्वारा share किये गए इस inspirational incident से हम एक सबक लें और अपने-अपने स्तर पर देश के बहुमूल्य  resources को बर्वाद होने से बचाएं और ये बात हमेशा याद रखें कि भले पैसा हमारा है पर संसाधन देश के हैं !
ये जानकारी मैंने  Internet से copy की  है
यदि आपके पास Hindi में कोई article, story, business idea या जानकारी है जो आप हमारे साथ share करना चाहते हैं तो कृपया उसे अपनी फोटो के साथ E-mail करें. हमारी Id है:safaltaaapki@gmail.com पसंद आने पर हम उसे आपके नाम और फोटो के साथ यहाँ PUBLISH करेंगे. Thanks

सफलता तुम्हारे चरण चूमेगी।

सफलता तुम्हारे चरण चूमेगी।
 सफलता  पायें कैसे?

अगर तुम ठान लो, तारे गगन के तोड़ सकते हो।
अगर तुम ठान लो, तूफान का मुख मोड़ सकते हो।।
यह कहने का तात्पर्य यही है कि जीवन में ऐसा कोई कार्य नहीं जिसे मानव न कर सके। जीवन में ऐसी कोई समस्या नहीं जिसका समाधान न हो।
जीवन में संयम, सदाचार, प्रेम, सहिष्णुता, निर्भयता, पवित्रता, दृढ़ आत्मविश्वास और उत्तम संग हो तो विद्यार्थी के लिए अपना लक्ष्य प्राप्त करना आसान हो जाता है।
यदि विद्यार्थी बौद्धिक-विकास के कुछ प्रयोगों को समझ लें, जैसे कि सूर्य को अर्घ्य देना, भ्रामरी प्राणायाम करना, तुलसी के पत्तों का सेवन करना, त्राटक करना, सारस्वत्य मंत्र का जप करना आदि तो उनके लिए परीक्षा में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होना आसान हो जायेगा।
विद्यार्थी को चाहिए कि रोज सुबह सूर्योदय से पहले उठकर सबसे पहले अपने इष्ट का, गुरु का स्मरण करे। फिर स्नानादि करके अपने पूजाकक्ष में बैठकर गुरुमंत्र, इष्टमंत्र अथवा सारस्वत्य मंत्र का जाप करे। अपने गुरु या इष्ट की मूर्ति की ओर एकटक निहारते हुए त्राटक करे। अपने श्वासोच्छ्वास की गति पर ध्यान देते हुए मन को एकाग्र करे। भ्रामरी प्राणायाम करे।
प्रतिदिन सूर्य को अर्घ्य दे और तुलसी के 5-7 पत्तों को चबाकर 2-4 घूँट पानी पिये।
रात को देर तक न पढ़े वरन् सुबह जल्दी उठकर उपर्युक्त नियमों को करके अध्ययन करे तो इससे पढ़ा हुआ शीघ्र याद हो जाता है।
जब परीक्षा देने जाये तो तनाव-चिन्ता से युक्त होकर नहीं वरन् इष्ट-गुरु का स्मरण करके, प्रसन्न होकर जाय।
परीक्षा भवन में भी जब तक प्रश्नपत्र हाथ में नहीं आता तब तक शांत तथा स्वस्थ चित्त होकर प्रसन्नता को बनाये रखे।
प्रश्नपत्र हाथ में आने पर उसे एक बार पूरा पढ़ लेना चाहिए और जिस प्रश्न का उत्तर आता है उसे पहले लिखे। ऐसा नहीं कि जो नहीं आता उसे देखकर घबरा जाये। घबराने से जो प्रश्न आता है वह भी भूल जायेगा।
जो प्रश्न आते हैं उन्हें हल करने के बाद जो नहीं आते उनकी ओर ध्यान दे। अंदर दृढ़ विश्वास रखे कि मुझे ये भी आ जायेंगे। अंदर से निर्भय रहे और भगवत्स्मरण करके एकाध मिनट शांत हो जाय, फिर लिखना शुरु करे। धीरे-धीरे उन प्रश्नों के उत्तर भी मिल जायेंगे।
मुख्य बात यह है कि किसी भी कीमत पर धैर्य न खोये। निर्भयता तथा दृढ़ आत्मविश्वास बनाये रखे।
विद्यार्थियों को अपने जीवन को सदैव बुरे संग से बचाना चाहिए। न तो वह स्वयं धूम्रपान आदि करे न ही ऐसे मित्रों का संग करे। व्यसनों से मनुष्य की स्मरणशक्ति पर बड़ा खराब प्रभाव पड़ता है।
व्यसन की तरह चलचित्र भी विद्यार्थी की जीवनशक्ति को क्षीण कर देते हैं। आँखों की रोशनी को कम करने के साथ ही मन और दिमाग को भी कुप्रभावित करने वाले चलचित्रों से विद्यार्थियों को सदैव सावधान रहना चाहिए। आँखों के द्वारा बुरे दृश्य अंदर घुस जाते हैं और वे मन को भी कुपथ पर ले जाते हैं। इसकी अपेक्षा तो सत्संग में जाना, सत्शास्त्रों का अध्ययन करना अनंतगुना हितकारी है।
यदि विद्यार्थी ने अपना विद्यार्थी-जीवन सँभाल लिया तो उसका भावी जीवन भी सँभल जाता है, क्योंकि विद्यार्थी-जीवन ही भावी जीवन की आधारशिला है। विद्यार्थीकाल में वह जितना संयमी, सदाचारी, निर्भय और सहिष्णु होगा, बुरे संग तथा व्यसनों को त्यागकर सत्संग का आश्रय लेगा, प्राणायाम-आसनादि को सुचारू रूप से करेगा उतना ही उसका जीवन समुन्नत होगा। यदि नींव सुदृढ़ होती है तो उस पर बना विशाल भवन भी दृढ़ और स्थायी होता है। विद्यार्थीकाल मानवजीवन की नींव के समान है, अतः उसको सुदृढ़ बनाना चाहिए।
इन बातों को समझकर उन पर अमल किया जाये तो केवल लौकिक शिक्षा में ही सफलता प्राप्त होगी ऐसी बात नहीं है वरन् जीवन की हर परीक्षा में विद्यार्थी सफल हो सकता है।
हे विद्यार्थियो ! उठो... जागो... कमर कसो। दृढ़ता और निर्भयता से जुट पड़ो। बुरे संग तथा व्यसनों को त्यागकर, संतों-सदगुरुओं के मार्गदर्शन के अनुसार चल पड़ो... सफलता तुम्हारे चरण चूमेगी।
धन्य है वे लोग जिनमें ये छः गुण हैं ! अंतर्यामी देव सदैव उनकी सहायता करते हैं-
उद्यमः साहसं धैर्यं बुद्धि शक्तिः पराक्रमः।
षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र देवः सहायकृत।।
'उद्योग, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति और पराक्रम – ये छः गुण जिस व्यक्ति के जीवन में हैं, देव उसकी सहायता करते हैं।'
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स्वस्थ मन, क्रोध एक विनाश का कारण

स्वस्थ मन
क्रोध एक विनाश का कारण
बहुत समय पहले की बात है, किसी नगर के कोतवाल को पता चला कि
 नगर में कोई महात्मा पधार रहें है, उन्होंने सोचा सत्संग प्राप्त किया जाये। जैसे ही उन्होंने रात की ड्यूटी समाप्त की, अपने सरकारी घोड़े पर सवार हो कर महात्मा के दर्शन के लिए चल पड़े।
     अपने पद और रौब का अहंकार उसके चेहरे से स्पष्ठ दिखाई दे रहा था। मार्ग में कोई मिलता, उससे पूछते कौन हो तुम ? कहाँ जा रहे हो ? इत्यादि, जरा जरा सी बात पर चाबुक फटकार कर राह चलते राहगीरों को डांट देते...... घोड़ा निरंतर आगे बड़ा जा रहा था।
     रास्ते में एक व्यक्ति आस पास के झाड़ और कंकड़ पत्थर साफ कर रहा था।  कोतवाली उसे भी डाँटते हुए बोला कौन हो तुम ? इस समय यहाँ क्या कर रहे हो ?  चलो हटो यहाँ से।  तनाव से वाणी कांप रही थी, परन्तु वह व्यक्ति उसकी बातें सुने बिना अपना काम करता रहा। कुछ जवाब नही दिया और न ही उसकी ओर देखा। कोतवाल उन्हें फिर क्रोध से फटकारते हुए बोला, जिह्वा में रोग लगा है क्या ? उत्तर क्यों नहीं देते ? ......... वह व्यक्ति हँस पड़ा  कोतवाल का चेहरा क्रोध से तमतमा गया। जोर से डांटते हुए बोला, बताओ महात्मा जी का स्थान किधर है ? जानते हो ? चलो आगे बढ़ कर बताओ।
     लेकिन इस बार वह व्यक्ति कुछ नहीं बोला, बस अपना काम करता रहा। कोतवाल ने बेंत फटकारी उसे लगा कि उस व्यक्ति ने उसे पहचाना नहीं, अतः फिर बोला मै कोतवाल हूँ, तुम इतना भी नहीं समझ पा रहे हो .........? लगता है, वृधावस्था के कारण तुम्हारी इन्द्रियां शिथिल और अस्वस्थ हो गयी है, तुम्हे कानों से सुनाई नही देता है, और न ही आखों से दिखाई देता है। ऐसा कहते कहते उस व्यक्ति को चार बेंत लगा दी, इतने पर भी वह व्यक्ति रास्ते के कंकड़ पत्थर साफ करता रहा। कोतवाल को लगा वह हँस रहा है, उसका परिहास कर रहा है इतने में कोतवाल ने उसे धक्का दे कर गिरा दिया .... वह व्यक्ति पत्थर पर जा गिरा। कोतवाल का घोड़ा आगे बढ़ गया।
     आगे कोतवाल ने राहगीरों से रोबीले स्वर में पूछा- महत्मा जी का स्थान कहाँ किधर है ? उनमे से एक ने कहा -आप आगे निकल आये है, पीछे शायद आपका वो मिल जाएँ।
     कोतवाल को आश्चर्य हुआ,  पूछा कि वही महात्मा है ? और उसने तुरंत घोड़ा वापस घुमाया। दूर से देखा तो कपड़ा फाड़ कर अपने सिर पर पट्टी पर बांध रहे थे। वास्तव में चोट लगने का उन्हें दुःख नहीं था। काम बाकी रह गया था, इस बात का दुःख था। कोतवाल उसके चरणों पर गिर गया, क्षमा मांगते हुए कहा - आप इतने बड़े महात्मा होकर सड़क के ककड़ पत्थर साफ कर कर रहें है! उन्होंने उत्तर दिया, मै ऐसे ऐसे छोटे - छोटे काम कर के मन को स्वस्थ रखता हूँ, मेरी समझ से ऐसा कार्य प्रत्येक व्यक्ति को करना चाहिए ..........
     लेकिन मनुष्य ने अपने चारों ओर क्रोध, अहंकार, लोभ आदि की कंटीली झाड़ियाँ उगा रखी है। जो उसके शरीर के स्वास्थ्य, उसके मन को पीड़ा पहुचाती हुई।  उसे अस्वस्थ और दुर्बल बन देतीं है, इन दुर्गुणों का नाश करने से मनुष्य का मन स्वस्थ हो जाता है, और शरीर सकारात्मक दिशा में काम करने के लिए प्रेरित होता है ...

     कोतवाल महत्मा की बात आश्चर्य चकित हो कर सुनता रहा। उसने बार- बार क्षमा मांगी जीवन में पहली बार उसने स्वयं को तनाव मुक्त अनुभव किया।

     वस्तुतः मनुष्य क्रोधादि दुर्गुणों के वाशीभूत हो कर अनेक मन के रोगों का शिकार हो जाता है। शारीरिक रोगों का निवारण तो औषधियों से संभव है, किन्तु मन के रोगों का शमन अहंकार, क्रोध आदि के त्याग से ही हो सकता है। जिसने इन दुर्गुणों को त्याग दिया, उसका मन स्वस्थ हो गया।
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सफलता पाने के लिए जरूरी है अपने लक्ष्य को पहचानना और उनका पीछा करना

सफलता पाने के लिए जरूरी है अपने लक्ष्य को पहचानना और उनका पीछा करना

अपने सपने साकार करने की दिशा में काम करने से आपके जीवन का महत्व बढ़ जाता है। इतिहास का एक प्रसंग इस बात का उदाहरण है। सबने यह कहानी सुनी होगी, जब न्यूटन ने सेब के फल को गिरते देख कर गुरुत्वाकर्षण का नियम खोजा था। परन्तु बहुत कम लोग यह जानते है कि हैली धूमकेतु की खोज करने वाले एडमंड हैली ने ही न्यूटन के सिद्धांत को लोकप्रिय बनाया। हैली ने न्यूटन को चुनौती दी कि वे अपनी मौलिक अवधारणाओं पर दुबारा विचार करें। उन्होंने न्यूटन की गणितीय गलतियों को ठीक किया और उनके शोध के समर्थन में ज्योमेट्री के रेखा चित्र खींचें। उन्होंने न सिर्फ न्यूटन का उनका महान ग्रन्थ Mathematical Principle of Natural Philosophy लिखने के लिए प्रेरित किया, बल्कि इसका संपादन भी किया। हैली ने न्यूटन को अपने सपनों पर काम करने के लिए प्रोत्साहित किया और इस वजह से न्यूटन का जीवन ज्यादा महत्वपूर्ण बन गया। न्यूटन को कई पुरस्कारों से नवाजा जाने लगा। हैली को बहुत कम श्रेय मिला, परन्तु उन्हें यह जान कर बहुत संतोष हुआ होगा कि उन्होंने वैज्ञानिक चिंतन की प्रगति में क्रांतिकारी विचारों को प्रेरित किया।

     अपने सपनों को पहचाने और उसका पीछा करें। उसे व्यक्तिगत हांसिल करने योग्य, आंकलन करने योग्य, दिखने वाला और विस्तृत होने वाला बनायें। महत्व आकांक्षा हमसे सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करवा लेती है, और जिस उपलब्धि का हमने सपना देखा उसका हिस्सा बनाने से हमारे आस पास के लोगों का जीवन समृद्ध हो सकता है। आप जिन लोगों का प्रतिनिधित्व करतें है। उन्हें महत्व का एहसास दिलाने के लिए बड़ी तस्वीर दिखाएँ और यह बात बता दें कि वे इसमें किस तरह योगदान दे रहें है।
     एक बार जब आप लोगों को विकास के महत्व का इतना एहसास दें की वे खुद अपने बारे में सोचने लगें, तो आप एक बड़े अवरोध को पार कर लेतें हैं। कहा जाता है शिक्षकों का लक्ष्य विद्यार्थियों को इस तरह तैयार करना होने चाहिए, ताकि वे उनके बिना भी सीख सकें। जब आप दूसरों के विकास में मदद करतें है तो यह जरूरी है कि उन्हें उनके जरूरत की हर चीज़ मिले, ताकि वे अपनी खुद की देखभाल करना सीख सकें। उन्हें संसाधन खोजना सिखाएं , उन्हें आलस्य से बाहर निकाल कर प्रोत्साहित करें और उन लोगों के बीच में रहने का मौका दें जो सीखने और विकसित होने में उनकी मदद कर सकें।  
     हमने यह सुना है कि तब तक कोई अमीर नहीं बन सकता, जब तक उसमें किसी दूसरे को बनाने का सामर्थ्य न हो। ऐसा कर के उसे सिर्फ प्रसन्नता ही नहीं मिलती, इससे वह समृधि का विस्तार भी करता है।
     जीवन के हर एक क्षेत्र में एक गलती आम है – श्रेय बांटने और दूसरों को प्रोत्साहन देने में असफलता। हर व्यक्ति श्रेय और सराहना का भूखा होता है। जब आप लोगों के संपर्क में आयें तो भीड़ में से थोड़ा धीमे गुजरें। लोगों का नाम याद रखें और उन्हें यह जताने का समय निकालें कि आपको उनकी परवाह है। बहुत कम चीज़े किसी व्यक्ति की मदद कर सकती है जितना की प्रोत्साहन। विलियम ए वार्ड कहतें है- “आप मेरी खुशामद करें तो हो सकता कि मै आप का विश्वास न करूं। अगर आप मेरी आलोचना करें तो हो सकता है कि मे आप को पसंद न करूं। अगर आप मेरी उपेक्षा करेंगे तो हो सकता है कि मै आप को माफ न करूं। परन्तु आप मुझे प्रोत्साहित करें तो मै आप को कभी नहीं भूल पाऊंगा”। जो आदमी अपनी अंतरआत्मा की उपेक्षा करता है, समझिये वह परिस्थितियों का गुलाम है। गुलाम ऐसे लोगों के सन्दर्भ में सही शब्द हैं, जिनमे ईमानदारी की कमी है, क्योकि वे अक्सर खुद को अपनी और दूसरों की बदलती इच्छाओं के वश में होतें हैं। लेकिन जो ईमानदार है, वे खुद को स्वतंत्रता का अनुभव करतें है। ईमानदारी की नींव में किसी दरार से बचने का तरीका आज ही यह निर्णय लेना है कि आप अपनी नैतिकता को शक्ति, प्रतिशोध, धन या गर्व के लिए नहीं बेचेंगे। अगर आप अपने जीवन मूल्यों की लक्ष्मण रेखा लान्घतें हैं- चाहे वह एक इंच हो या एक मील हो- तो आप पूरी तरह ईमानदार नही रहेंगे। ईमानदारी वह द्वार खोलती है जिससे कोई भी स्थाई सफलता का अनुभव कर सकता है।
     ईमानदारी जीवन में अपने आप नही आती, वह तो आत्म अनुशासन, आतंरिक विश्वास और जीवन की सभी परिस्थितियों में ईमानदार होने के निर्णय का परिणाम होता है। दुर्भाग्य से आज की दुनिया में चारित्रिक दृढ़ता एक दुर्लभ वस्तु है। ईमानदारी का अर्थ भी सिमट कर रह गया है। आज की संस्कृति को दिशा देने वाला जीवन दर्शन भौतिक है। यह ग्राहक की मानसिकता के इर्द- गिर्द घूमती है। क्षण की प्रबल आवश्यकता स्थाई महत्व के जीवन मूल्यों पर हावी हो जाती है। जब हम किसी के सामने अपने जीवन मूल्य बेचतें है तो दरअसल हम खुद को भी बेच देतें है। इसलिए कहा जाता है कि जब धन नष्ट होता है तो कुछ भी नष्ट नही होता। जब स्वास्थ्य नष्ट होता है तो थोड़ा सा नष्ट होता है। लेकिन जब चरित्र नष्ट होता है, तो सब कुछ नष्ट हो जाता है।

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असफलता ही सफलता का द्वार खोलती है।


असफलता ही सफलता का द्वार खोलती है।
मैं इस बात को एक किम्बदन्ती के माध्यम से बताता हूँ। हमारे यहां कल्प वृक्ष की महत्ता से सभी परिचित होंगे। स्वर्ग में होता है और जो मांगो वही देता है। एक बार नारद जी अपने एक शिष्य को लेकर पृथ्वी से स्वर्ग लोक पहुँचे। वहाँ उन्होंने उसे एक कल्प वृक्ष के नीचे बैठा दिया और
 कहीं अन्यत्र चले गए। वह आदमी थक गया था। वह सोचने लगा कि कोई मेरा पैर दबा देता! विचार आया, ठीक वैसे ही अप्सराएं वहाँ उपस्थित हो गयीं और उसकी सेवा करने लगी। वह तो गद-गद हो उठा। कहा- स्वर्ग में कितना सुख है। दूसरे क्षण एक विचार आया कि कहीं मेरी पत्नी इस दृश्य को देख ले तो लड़ाई शुरू हो जायेगी। इतना सोचना ही पर्याप्त था कि उसी क्षण उसकी पत्नी हाथ में झाड़ू लिए वहां उपस्थित हो गयी और उसकी पिटाई करना शुरू कर दी। आगे-आगे वह और पीछे पीछे झाडू धारिणी पत्नी। नारद जी तुरंत वहाँ पहुँचे और बोले मूर्ख सोचना ही था तो अच्छी बात सोचते। कल्प वृक्ष से तो जो मांगों वही देता है।
     कहने का तात्पर्य यह है कि हम जैसा सोचते है वैसा ही बन जातें हैं। मन ही सारी क्रियाओं का नियामक है। जिसने अपने मन को साध लिया, वह पूरी दुनिया को भी जीत सकता है। अगर आप साधन हीन है, या शारीरिक रूप से कमजोर हैं, तो भी अपने मन में श्रेष्ठ भाव आने दीजिये। क्योंकि कंचन बनने के लिए बहुत सारी जटिलताओं से गुजरना पड़ता है। इसके साथ ही विपरीत परिस्थितियों में ही व्यक्ति के साहस और विवेक की परीक्षा होती है। कहा भी गया है-

वह पथ और पथिक कुशलता क्या ?
जिस पथ पर बिखरे शूल न हों।
नविक की धैर्य परीक्षा क्या?
जब धाराएं प्रतिकूल न हों।।

     आत्मविश्वास के द्वारा ही आदमी निर्णय लेने में समर्थ होता है।आत्मविश्वास मनुष्य की सम्पूर्ण शक्तियों को संगठित करता है। चित्त की एकाग्रता प्रबल होने पर मनुष्य की प्रसुप्त शक्तियाँ जाग्रत हो जाती है। आप के पास जो शक्तियाँ है, उन पर विश्वास करना और उसका सही उपयोग करना ही सफलता का मूल मन्त्र है। यदि मन में दृढ इच्छाशक्ति का अभाव होगा तो व्यक्ति को अपने लक्ष्य में सफलता प्राप्त नहीं हो सकेगी। गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है- "संस्यात्मा विनश्यति" अर्थात जिसके मन में संशय होता है उसका विनाश हो जाता है। सम्भवतः इसीलिए उन्होंने उपदेश दिया था कि मनुष्य को प्रत्येक कार्य दृढ संकल्प के साथ करना चाहिए, तभी सफलता प्राप्त हो सकती है।

     सृष्ठि के एक छोटे से जीव चींटी से प्रेरणा ली जा सकती है, जो जिंदगी की जुगत में भोजन लेकर दीवार पर चढ़ती है, गिरती है और यही क्रम बार बार चलता रहता है अंततः उसके अथक प्रयास और उसके मानसिक संबल की जीत होती है। यही जिंदगी का अकाट्य सत्य है। इतिहास में अनेकों घटनाएं दर्ज है जब अनेकों लोगो ने अपने आत्मविश्वास के बल पर जीत दर्ज की विश्वविजेता नेपोलियन, जर्मन प्रधानमंत्री विस्मार्क तथा वर्तमान युग में मिसाइलमैन पूर्व राष्ट्रपति डॉ ए पी जे अब्दुल कलाम आदि इनके सशक्त उदाहरण है।
     आत्मविश्वास के विकास में परिवार और समाज की महती भूमिका है। यह पाया गया है जिन बालकों की मां बाप तथा शिक्षकों द्वारा प्रसंशा की जाती है, उनके अंदर आत्मविश्वास कूट कूट कर भर जाता है, किन्तु जो माँ बाप बच्चों को हमेशा उलाहना देतें है, उनका आत्मविश्वास चकनाचूर हो जाता है।
     यदि अपने ऊपर विश्वास है तो असंभव कुछ भी नहीं है। लेकिन कर्म के प्रति ईमानदारी होना चाहिए। मानव दूसरे से भले ही कुछ छुपा ले किन्तु अपने आप से कुछ छिपा नही सकता। अगर आप अपनी असफलताओं का विश्लेषण करें तो सब कुछ आप के सामने होगा। जिंदगी एक जंग है जिसे संघर्ष से जीत जा सकता है। हर छोटी सी असफलता सफलता का द्वार खोलती है। खिलाडी जैसे मैदान में कभी जीतता है और कभी हरता है। ठीक वैसे ही हमें खेल भावना को अपने जीवन में आत्मसात कर लेना चाहिये। चाहे कैसी भी परिस्थितियाँ क्यों न हो व्यक्ति को डरना नहीं चाहिए।

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मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है

मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है
सफल जीवन के सूत्र
1. जीवन का लक्ष्य स्पष्ट हो।
2. दृढ़ संकल्पशक्ति पैदा हो तथा सकारात्मक लक्ष्य के लिए संकल्पित हो।
3. सकारात्मक चिन्तन जागृत हो।
4. अपनी आत्मशक्ति की ताकत पहचाने।
5. मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है, परन्तु कैसे?
         ‘‘असफलता यह सिद्ध करती है कि सफलता का प्रयास पूरे मन से नहीं किया गया।’’ संसार में प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में हर क्षेत्र में सफल होना चाहता है चाहे नौकरी हो या व्यापार, विद्यार्जन हो, प्रतियोगी परीक्षा हो, चाहे कोई कलाकार, संगीतकार, वैज्ञानिक, व्यवसायी हो या कृषक। लड़का हो या लड़की, विवाहित हो या अविवाहित, सभी सफलता चाहते हैं। लेकिन सफलता शेखचिल्लियों या ख्याली पुलाव पकाने वाले या कोरी कल्पनाओं में सोए रहकर सपने देखने वालों को नहीं मिलती।
          सफलता ब्याज चाहती है, सफलता को मूल्य देकर (पैसा नहीं) पाना होता है। यह सत्य है कि मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। लेकिन अपनी सफलता की कहानी लिखी जा सके इससे पहले कुछ सूत्रों को अपनाना होगा। दुनिया के सफलतम व्यक्तियों जिन्होंने अपने जीवन में कामयाबी हासिल की उन्होंने कुछ सूत्रों को जीवन में स्थान दिया। सफलता के शिखर को जिन्होंने छुआ, उस पर प्रतिष्ठित हुए ऐसे महापुरुषों के जीवन में अपनाए गए प्रयोगों से हम प्रेरणा लें।
1. दृढ़ इच्छा शक्ति :-
          सफलता का मूल मनुष्य की इच्छाशक्ति में सन्निहित होती है। समुद्र से मिलने की प्रबल आकांक्षा करने वाली नदी की भांति वह मनुष्य भी अपनी सफलता के लिए मार्ग निकाल लेता है, जिसकी इच्छाशक्ति दृढ़ और बलवती होती है, उसके मार्ग में कोई भी रुकावट बाधा नहीं डाल सकती। संसार के सभी छोटे- बड़े कार्य किए जा सकने के माध्यम शक्ति है। लेकिन वास्तविक शक्ति मनुष्य की इच्छा शक्ति है। इच्छा की स्फुरण से कर्म करने की प्रेरणा मिलती है। प्रेरणा से व्यक्ति कर्म करने के लिए प्रवृत्त हो जाता है।
          इस प्रकार सारी सफलताएँ इच्छा शक्ति के अधीन होती है। एक गांव में मजदूर के घर पला हुआ बच्चा लखपति बन जाता है। छोटे से किसान के घर सामान्य जीवन जीने वाला विद्यावान् बन जाता है। यह उसकी इच्छा शक्ति है। महात्मा गांधी प्रबल इच्छा शक्ति के जीते जागते आदर्श थे। कु. केलर गूंगी बहरी अंधी होकर भी कई विषयों एवं भाषाओं में स्नातक थी। नेपोलियन ने 25 वर्ष में इटली पर विजय पा ली थी।
2. दृढ़ संकल्प शक्ति :-
          केवल इच्छा करने से बात नहीं बनती। इच्छा को दृढ़ संकल्प में बदलना होगा। जब आप दृढ़ संकल्प कर लेंगे तो पानी के बुलबुले की भांति पल-पल में आपकी इच्छा नहीं बदलेगी। दृढ़ संकल्प का तात्पर्य है- मन, बुद्ध व शरीर से इच्छित लक्ष्य को पाने के लिए कठोर परिश्रम करने को तत्पर होना। इस हेतु
(क) कार्य को खेल की तरह रुचि लेते हुए योजना बनाकर करें।
(ख) धैर्यपूर्वक लक्ष्य पर अडिग रहें।
(ग) जो विपरीत परिस्थितियाँ आए उसे सफलता की सीढ़ी मानते हुए पार करें,कठिनाइयां सफलता की सहचरी है।
          छोटे- छोटे संकल्प लें और धैर्यपूर्वक उसे पूरा करें। इससे संकल्प शक्ति का विकास होता है। जैसे आज टी.वी. नहीं देखूँगा, गप्पेबाजी में समय नहीं लगाऊँगा, गाली नहीं दूँगा, गुटखा नहीं खाऊँगा। बाद में बड़े बड़े संकल्प लेने और पूरा करने की ताकत आ जाती है। लाल बहादुर शास्त्री जी, मिसाइल मैन अब्दुल कलाम आजाद ने अपने दृढ़ संकल्प से लक्ष्य को पा लिया।
3. परिश्रम एवं पुरुषार्थ :-
           जो व्यक्ति अपने शरीर से हमेशा अपने लक्ष्य के अनुरूप श्रम करने को तत्पर रहता है, अपनी शक्तियों का समुचित उपयोग करता है, वह कृतकृत्य हो जाता है। सक्रियता ही जीवन है और निष्क्रियता ही मृत्यु। श्रम से जी चुराने वाले, आलस्य और प्रमाद में पड़े रहने वाले युवा को युवा तो क्या जीवित भी नहीं कहा जा सकता।
          श्रम करने से शरीर स्वस्थ एवं स्फूर्तिवान् बनता है। जिससे वांछित सफलता की ओर बढ़ने की प्रेरणा मिलती है। निष्क्रिय कामनाएँ कभी सफल नहीं होते। सफलता पाने योग्य शक्तियाँ मनुष्य में निहित तो होती हैं लेकिन उनका उभार, निखार और उपयोग परिश्रम एवं पुरुषार्थ करने में ही है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि सफलता मनुष्य के पसीने का मूल्य है।

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Wednesday 24 February 2016

safaltaaapki: छुआछूत के विरुद्ध संघर्ष भीमराव आम्बेडकर

<a href="http://safaltaapki.blogspot.com/2016/02/blog-post_95.html?spref=bl">safaltaaapki: छुआछूत के विरुद्ध संघर्ष भीमराव आम्बेडकर</a>: छुआछूत के विरुद्ध संघर्ष भीमराव आम्बेडकर 1920 के दशक में बंबई में एक बार बोलते हुए उन्होंने साफ-साफ कहा था जहाँ मेरे व्यक्तिगत हित और देशह...

आम्बेडकर बनाम गाँधी

आम्बेडकर बनाम गाँधी
महात्मा गांधी के विपरीत डॉ. आम्बेडकर गांवों की अपेक्षा नगरों में एवं ग्रामीण शिल्पों या कृषि की व्यवस्था की तुलना में पश्चिमी समाज की औद्योगिक विकास में भारत और दलितों का भविष्य देखते थे। वे मार्क्सवादी समाजवाद की तुलना में बौद्ध मानववाद के समर्थक थे जिसके केन्द्र में व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समानता एवं भ्रातृत्व की भावना है। आम्बेडकर, महात्मा गांधी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उग्र आलोचक थे। उनके समकालीनों और आधुनिक विद्वानों ने उनके महात्मा गांधी (जो कि पहले भारतीय नेता थे जिन्होंने अस्पृश्यता और भेदभाव करने का मुद्दा सबसे पहले उठाया था) के विरोध की आलोचना है।
1932 में ग्राम पंचायत बिल पर बम्बई की विधान सभा में बोलते हुए आम्बेडकर ने कहा: बहुतों ने ग्राम पंचायतों की प्राचीन व्यवस्था की बहुत प्रशंसा की है। कुछ लोगों ने उन्हें ग्रामीण प्रजातन्त्र कहा है। इन देहाती प्रजातन्त्रों का गुण जो भी हो, मुझे यह कहने में जरा भी दुविधा नहीं है कि वे भारत में सार्वजनिक जीवन के लिए अभिशाप हैं। यदि भारत राष्ट्रवाद उत्पन्न करने में सफल नहीं हुआ, यदि भारत राष्ट्रीय भावना के निर्माण में सफल नहीं हुआ, तो इसका मुख्य कारण मेरी समझ में ग्राम व्यवस्था का अस्तित्व है। इससे हमारे लोगों में विशिष्ट स्थानीयता की भावना भर गई उससे बड़ी नागरिक भावना के लिए थोड़ी भी जगह न रही। प्राचीन ग्राम पंचायतों की व्यवस्था के अन्तर्गत एकताबद्ध जनता के देश के बदले भारत ग्राम पंचायतों का ढीला-ढाला समुदाय बन गया। वे सब एक ही राजा की प्रजा थे, इसके सिवा उनके बीच और कोई बन्धन नहीं था।
गांधी का दर्शन भारत के पारंपरिक ग्रामीण जीवन के प्रति अधिक सकारात्मक, लेकिन रूमानी था, और उनका दृष्टिकोण अस्पृश्यों के प्रति भावनात्मक था उन्होंने उन्हें हरिजन कह कर पुकारा। आम्बेडकर ने इस विशेषण को सिरे से अस्वीकार कर दिया। उन्होंने अपने अनुयायियों को गांव छोड़ कर शहर जाकर बसने और शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया।
मृत्यु
आम्बेडकर 1948 से मधुमेह से पीड़ित थे। और वो जून से अक्टूबर 1954 तक बहुत बीमार रहे। राजनीतिक मुद्दों से परेशान आम्बेडकर का स्वास्थ्य बद से बदतर होता चला गया और 1955 के दौरान किये गये लगातार काम ने उन्हें तोड़ कर रख दिया। अपनी अंतिम पाण्डुलिपि बुद्ध और उनके धम्म को पूरा करने के तीन दिन के बाद 6 दिसंबर 1956 को आम्बेडकर की मृत्यु नींद में दिल्ली में उनके घर में हो गई। 7 दिसंबर को चौपाटी समुद्र तट पर बौद्ध शैली में अंतिम संस्कार किया गया जिसमें सैकड़ों हज़ारों समर्थकों, कार्यकर्ताओं और प्रशंसकों भाग लिया। एक स्मारक आम्बेडकर के दिल्ली स्थित उनके घर 26 अलीपुर रोड में स्थापित किया गया है। आम्बेडकर जयंती पर सार्वजनिक अवकाश रखा जाता है। अपने अनुयायियों को उनका संदेश था।
शिक्षित बनो !!!, संगठित रहो!!!, संघर्ष करो !!!।
उपसंहार
आम्बेडकर विधि विशेषज्ञ, अर्थशास्त्री, इतिहास विवेचक, और धर्म और दर्शन के विद्वान थे। उन्होंने अपने लेखन में अनेक ऐसे सूत्र दिए हैं जिनके आधार पर भारतीय इतिहास को हम पूंजीवादी विवेचकों के दुष्प्रभाव से मुक्त कर सकते हैं। उनकी एक क्रांतिकारी स्थापना यह है कि इंग्लैंड किसी तरह व्यापार में भारत से स्पर्धा न कर सकता था और माल तैयार करने वाले देश के रूप में भारत इंग्लैंड से बढ़ कर था। अंग्रेज़ी शासनतंत्र के विवेचन में आम्बेडकर ने अनेक ऐसे तथ्य दिए हैं जिनसे प्रमाणित होता है, अंग्रेज़ों ने जाति-बिरादरी की प्रथा को और कठोर बनाया, उन्होंने यहाँ का व्यापार नष्ट किया, शहरों के उद्योग-धंधे तबाह किए। लाखों कारीगर शहर छोड़कर देहात में जा बसे, वहां जमींदारों की बेगार करने पर बाध्य हुए।

राजनीतिक परिचय भीमराव आम्बेडकर

राजनीतिक परिचय भीमराव आम्बेडकर
येओला नासिक में 13 अक्टूबर 1935 को आम्बेडकर ने एक रैली को संबोधित किया। 13 अक्टूबर 1935 को, आम्बेडकर को सरकारी लॉ कॉलेज का प्रधानाचार्य नियुक्त किया गया और इस पद पर उन्होंने दो वर्ष तक कार्य किया। इसके चलते आम्बेडकर बंबई में बस गये, उन्होंने यहाँ एक बडे़ घर का निर्माण कराया, जिसमे उनके निजी पुस्तकालय में 50000 से अधिक पुस्तकें थीं। इसी वर्ष उनकी पत्नी रमाबाई की एक लंबी बीमारी के बाद मृत्यु हो गई। रमाबाई अपनी मृत्यु से पहले तीर्थयात्रा के लिये पंढरपुर जाना चाहती थीं पर आम्बेडकर ने उन्हें इसकी इजाज़त नहीं दी। आम्बेडकर ने कहा की उस हिन्दू तीर्थ में जहाँ उनको अछूत माना जाता है, जाने का कोई औचित्य नहीं है इसके बजाय उन्होंने उनके लिये एक नया पंढरपुर बनाने की बात कही। भले ही अस्पृश्यता के ख़िलाफ़ उनकी लडा़ई को भारत भर से समर्थन हासिल हो रहा था पर उन्होंने अपना रवैया और अपने विचारों को रूढ़िवादी हिंदुओं के प्रति और कठोर कर लिया। उनकी रूढ़िवादी हिंदुओं की आलोचना का उत्तर बडी़ संख्या में हिन्दू कार्यकर्ताओं द्वारा की गयी उनकी आलोचना से मिला। 13 अक्टूबर को नासिक के निकट येओला में एक सम्मेलन में बोलते हुए आम्बेडकर ने धर्म परिवर्तन करने की अपनी इच्छा प्रकट की। उन्होंने अपने अनुयायियों से भी हिन्दू धर्म छोड़ कोई और धर्म अपनाने का आह्वान किया। उन्होंने अपनी इस बात को भारत भर में कई सार्वजनिक सभाओं में दोहराया भी।
स्वतंत्र लेबर पार्टी
आम्बेडकर ने 1936 में स्वतंत्र लेबर पार्टी की स्थापना की, जो 1937 में केन्द्रीय विधान सभा चुनावों में 15 सीटें जीती। उन्होंने अपनी पुस्तक जाति के विनाश भी इसी वर्ष प्रकाशित की जो उनके न्यूयॉर्क में लिखे एक शोधपत्र पर आधारित थी। इस सफल और लोकप्रिय पुस्तक में आम्बेडकर ने हिन्दू धार्मिक नेताओं और जाति व्यवस्था की ज़ोरदार आलोचना की। उन्होंने अस्पृश्य समुदाय के लोगों को गाँधी द्वारा रचित शब्द हरिजन पुकारने के कांग्रेस के फैसले की कडी़ निंदा की। आम्बेडकर ने रक्षा सलाहकार समिति और वाइसराय की कार्यकारी परिषद के लिए श्रम मंत्री के रूप में सेवारत रहे।
मार्च 1940 में मुस्लिम लीग ने अपने लाहौर अधिवेशन में प्रसिद्ध पाकिस्तान प्रस्ताव पास किया। आम्बेडकर ने तीन साल पहले इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी नाम से एक दल संगठित किया था। उसने पाकिस्तान प्रस्ताव का अध्ययन करने के लिए एक समिति बनाई। इस समिति के लिए दिसम्बर 1940 तक आम्बेडकर ने अपनी रिपोर्ट तैयार कर ली। वह 'पाकिस्तान या भारत का विभाजन' - 'पाकिस्तान ऑर द पार्टीशन ऑफ इंडिया' - नाम से प्रकाशित हुई।
1941 और 1945 के बीच में उन्होंने बड़ी संख्या में अत्यधिक विवादास्पद पुस्तकें और पर्चे प्रकाशित किये जिनमे थॉट्स ऑन पाकिस्तान भी शामिल है, जिसमें उन्होंने मुस्लिम लीग की मुसलमानों के लिए एक अलग देश पाकिस्तान की माँग की आलोचना की। 'वॉट कॉंग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल्स' (काँग्रेस और गान्धी ने अछूतों के लिये क्या किया) के साथ, आम्बेडकर ने गांधी और कांग्रेस दोनो पर अपने हमलों को तीखा कर दिया उन्होंने उन पर ढोंग करने का आरोप लगाया। उन्होंने अपनी पुस्तक 'हू वर द शुद्राज़?( शुद्र कौन थे?)' के द्वारा हिन्दू जाति व्यवस्था के पदानुक्रम में सबसे नीची जाति यानी शुद्रों के अस्तित्व में आने की व्याख्या की। उन्होंने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि किस तरह से अछूत, शुद्रों से अलग हैं। आम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक पार्टी को अखिल भारतीय अनुसूचित जाति फेडरेशन में बदलते देखा, हालांकि 1946 में आयोजित भारत के संविधान सभा के लिए हुये चुनाव में इसने ख़राब प्रदर्शन किया। 1948 में हू वर द शुद्राज़? की उत्तरकथा 'द अनटचेबलस: ए थीसिस ऑन द ओरिजन ऑफ अनटचेबिलिटी (अस्पृश्य: अस्पृश्यता के मूल पर एक शोध)' में आम्बेडकर ने हिन्दू धर्म को लताड़ा। आम्बेडकर इस्लाम और दक्षिण एशिया में उसकी रीतियों के भी आलोचक थे। उन्होंने भारत विभाजन का तो पक्ष लिया पर मुस्लिम समाज में व्याप्त बाल विवाह की प्रथा और महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार की घोर निंदा की।

मेहनत मज़दूरी करने वालों को पारिश्रमिक दिया जाता था, यह बड़ा महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। शूद्रों की स्थिति का विवेचन करते हुए अक्सर इतिहासकार यही बात भूल जाते हैं। आम्बेडकर का मूल वाक्य अंग्रेज़ी में इस प्रकार है: Besides few slaves there was a considerable amount of free labours paid in money or food.
उन्होंने लिखा कि मुस्लिम समाज में तो हिन्दू समाज से भी अधिक सामाजिक बुराइयाँ हैं और मुसलमान उन्हें 'भाईचारे' जैसे नर्म शब्दों के प्रयोग से छुपाते हैं। उन्होंने मुसलमानों द्वारा अर्ज़ल वर्गों के ख़िलाफ़ भेदभाव जिन्हें 'निचले दर्जे का' माना जाता था के साथ ही मुस्लिम समाज में महिलाओं के उत्पीड़न की दमनकारी पर्दा प्रथा की भी आलोचना की। उन्होंने कहा हालाँकि पर्दा हिंदुओं में भी होता है पर उसे धर्मिक मान्यता केवल मुसलमानों ने दी है। उन्होंने इस्लाम में कट्टरता की आलोचना की जिसके कारण इस्लाम की नातियों का अक्षरक्ष अनुपालन की बद्धता के कारण समाज बहुत कट्टर हो गया है और उसे को बदलना बहुत मुश्किल हो गया है। उन्होंने आगे लिखा कि भारतीय मुसलमान अपने समाज का सुधार करने में विफल रहे हैं जबकि इसके विपरीत तुर्की जैसे देशों ने अपने आपको बहुत बदल लिया है।
हमारा यह दृढ़ विश्वास है कि भारत में छोटी जोत की समस्या बुनियादी समस्या नहीं है। बल्कि यह एक मूल समस्या से निकली हुई समस्या है। अर्थात सामाजिक अर्थव्यवस्था में असामंजस्य की समस्या है। इतनी अधिक भूमि में खेती होने के बावजूद उसकी जनसंख्या के अनुपात से बहुत कम भूमि में खेती होती है।
हालांकि वे मुहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग की विभाजनकारी सांप्रदायिक रणनीति के घोर आलोचक थे पर उन्होंने तर्क दिया कि हिन्दुओं और मुसलमानों को पृथक कर देना चाहिए और पाकिस्तान का गठन हो जाना चाहिये क्योंकि एक ही देश का नेतृत्व करने के लिए, जातीय राष्ट्रवाद के चलते देश के भीतर और अधिक हिंसा पनपेगी। उन्होंने हिन्दू और मुसलमानों के सांप्रदायिक विभाजन के बारे में अपने विचार के पक्ष में ऑटोमोन साम्राज्य और चेकोस्लोवाकिया के विघटन जैसी ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख किया। उन्होंने पूछा कि क्या पाकिस्तान की स्थापना के लिये पर्याप्त कारण मौजूद थे? और सुझाव दिया कि हिन्दू और मुसलमानों के बीच के मतभेद एक कम कठोर क़दम से भी मिटाना संभव हो सकता था। उन्होंने लिखा है कि पाकिस्तान को अपने अस्तित्व का औचित्य सिद्ध करना चाहिये। कनाडा जैसे देशों में भी सांप्रदायिक मुद्दे हमेशा से रहे हैं पर आज भी अंग्रेज़ और फ्रांसीसी एक साथ रहते हैं, तो क्या हिन्दू और मुसलमान भी साथ नहीं रह सकते। उन्होंने चेताया कि दो देश बनाने के समाधान का वास्तविक क्रियान्वयन अत्यन्त कठिनाई भरा होगा। विशाल जनसंख्या के स्थानान्तरण के साथ सीमा विवाद की समस्या भी रहेगी। भारत की स्वतंत्रता के बाद होने वाली हिंसा को ध्यान में रख कर यह भविष्यवाणी कितनी सही थी।
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छुआछूत के विरुद्ध संघर्ष भीमराव आम्बेडकर

छुआछूत के विरुद्ध संघर्ष
भीमराव आम्बेडकर
1920 के दशक में बंबई में एक बार बोलते हुए उन्होंने साफ-साफ कहा था जहाँ मेरे व्यक्तिगत हित और देशहित में टकराव होगा वहाँ मैं देश के हित को प्राथमिकता दूँगा, लेकिन जहाँ दलित जातियों के हित और देश के हित में टकराव होगा, वहाँ मैं दलित जातियों को प्राथमिकता दूँगा। वे अंतिम समय तक दलित-वर्ग के मसीहा थे और उन्होंने जीवनपर्यंत अछूतोद्धार के लिए कार्य किया। जब महात्मा गाँधी ने दलितों को अल्पसंख्यकों की तरह पृथक निर्वाचन मंडल देने के ब्रिटिश नीति के ख़िलाफ़ आमरण अनशन किया।
सन् 1927 में उन्होंने हिन्दुओं द्वारा निजी सम्पत्ति घोषित सार्वजनिक तालाब से पानी लेने के लिए अछूतों को अधिकार दिलाने के लिए एक सत्याग्रह का नेतृत्व किया। उन्होंने सन् 1937 में बंबई उच्च न्यायालय में यह मुक़दमा जीता।
आम्बेडकर ने ऋग्वेद से उद्धरण देकर दिखाया है कि आर्य गौर वर्ण के और श्याम वर्ण के भी थे। अश्विनी देवों ने श्याव और रुक्षती का विवाह कराया। श्याव श्याम वर्ण का है और रुक्षती गौर वर्ण की है। अश्विनी वंदना की रक्षा करते हैं और वह गौर वर्ण की है। एक प्रार्थना में ॠषि कहते हैं कि उन्हें पिशंग वर्ण अर्थात भूरे रंग का पुत्र प्राप्त हो। आम्बेडकर का निष्कर्ष है: इन उदाहरणों से ज्ञात होता है कि वैदिक आर्यों में रंगभेद की भावना नहीं थी। होती भी कैसे? वे एक रंग के थे ही नहीं। कुछ गोरे थे, कुछ काले थे, कुछ भूरे थे। दशरथ के पुत्र राम श्याम वर्ण के थे। इसी तरह यदुवंशी कृष्ण भी श्याम वर्ण के थे। ऋग्वेद के अनेक मंत्रों के रचनाकार दीर्घतमस हैं। उनके नाम से ही प्रतीत होता है, वे श्याम वर्ण के थे। आर्यों में एक प्रसिद्ध ॠषि कण्व थे। ऋग्वेद में उनका जो विवरण मिलता है, उससे ज्ञात होता है, वे श्याम वर्ण के थे। इसी तरह आम्बेडकर ने इस धारणा का खंडन किया कि आर्य गोरी नस्ल के ही थे।
 आम्बेडकर ने मंदिरों में अछूतों के प्रवेश करने के अधिकार को लेकर भी संघर्ष किया। वह लंदन में हुए गोलमेज़ सम्मेलन के शिष्टमंडल के भी सदस्य थे, जहाँ उन्होंने अछूतों के लिए अलग निर्वाचन मंडल की मांग की। महात्मा गांधी ने इसे हिन्दू समाज में विभाजक मानते हुए विरोध किया।
1931 में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को सम्बोधित करते हुए आम्बेडकर ने गोलमेज सम्मेलन में कहा: ब्रिटिश पार्लियामेंट और प्रवक्ताओं ने हमेशा यह कहा है कि वे दलित वर्गों के ट्रस्टी हैं। मुझे विश्वास है, कि यह बात सभ्य लोगों की वैसी झूठी बात नहीं है जो आपसी सम्बन्धों को मधुर बनाने के लिए कही जाती है। मेरी राय में किसी भी सरकार का यह निश्चित कर्तव्य होगा कि जो धरोहर उसके पास है, उसे वह गँवा न दे। यदि ब्रिटिश सरकार हमें उन लोगों की दया के भरोसे छोड़ देती है जिन्होंने हमारी खुशहाली की ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया, तो यह बहुत बड़ी गद्दारी होगी। हमारी तबाही और बर्बादी की बुनियाद पर ही ये लोग धनीमानी और बड़े बने हैं।
सन् 1932 में पूना समझौते में गांधी और आम्बेडकर, आपसी विचार–विमर्श के बाद एक मध्यमार्ग पर सहमत हुए। आम्बेडकर ने शीघ्र ही हरिजनों में अपना नेतृत्व स्थापित कर लिया और उनकी ओर से कई पत्रिकाएं निकालीं; वह हरिजनों के लिए सरकारी विधान परिषदों में विशेष प्रतिनिधित्व प्राप्त करने में भी सफल हुए। आम्बेडकर ने हरिजनों का पक्ष लेने के महात्मा गांधी के दावे को चुनौती दी और व्हॉट कांग्रेस ऐंड गांधी हैव डन टु द अनटचेबल्स (सन् 1945) नामक लेख लिखा। सन् 1947 में आम्बेडकर भारत सरकार के क़ानून मंत्री बने। उन्होंने भारत के संविधान की रूपरेखा बनाने में प्रमुख भूमिका निभाई, जिसमें उन्होंने अछूतों के साथ भेदभाव को प्रतिबंधित किया और चतुराई से इसे संविधान सभा द्वारा पारित कराया। सरकार में अपना प्रभाव घटने से निराश होकर उन्होंने सन् 1951 में त्यागपत्र दे दिया। सन् 1956 में वह नागपुर में एक समारोह में अपने दो लाख अछूत साथियों के साथ हिन्दू धर्म त्यागकर बौद्ध बन गए, क्योंकि छुआछूत अब भी हिन्दू धर्म का अंग बनी हुई थी। डॉक्टर आम्बेडकर को सन् 1990 में मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया।

डॅा. भीमराव आम्बेडकर

डॉ. भीमराव रामजी आम्बेडकर ( जन्म: 14 अप्रैल, 1891 - मृत्यु: 6 दिसंबर, 1956)
 एक बहुजन राजनीतिक नेता, और एक बौद्ध पुनरुत्थानवादी भी थे। उन्हें बाबासाहेब के नाम से भी जाना जाता है। आम्बेडकर ने अपना सारा जीवन हिन्दू धर्म की चतुवर्ण प्रणाली, और भारतीय समाज में सर्वत्र व्याप्त जाति व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष में बिता दिया। हिन्दू धर्म में मानव समाज को चार वर्णों में वर्गीकृत किया है। उन्हें बौद्ध महाशक्तियों के दलित आंदोलन को प्रारंभ करने का श्रेय भी जाता है। आम्बेडकर को भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया है जो भारत का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार है। अपनी महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों तथा देश की अमूल्य सेवा के फलस्वरूप डॉ. अम्बेडकर को 'आधुनिक युग का मनु' कहकर सम्मानित किया गया।
जीवन परिचय
डॉ. भीमराव रामजी आम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 में हुआ था। वे रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई मुरबादकर की 14वीं व अंतिम संतान थे। उनका परिवार मराठी था और वो अंबावडे नगर जो आधुनिक महाराष्ट्र के रत्नागिरी ज़िले में है, से संबंधित था। अनेक समकालीन राजनीतिज्ञों को देखते हुए उनकी जीवन-अवधि कुछ कम थी। वे महार जाति के थे जो अछूत कहे जाते थे। किन्तु इस अवधी में भी उन्होंने अध्ययन, लेखन, भाषण और संगठन के बहुत से काम किए जिनका प्रभाव उस समय की और बाद की राजनीति पर है। भीमराव आम्बेडकर का जन्म निम्न वर्ण की महार जाति में हुआ था। उस समय अंग्रेज़ निम्न वर्ण की जातियों से नौजवानों को फ़ौज में भर्ती कर रहे थे। आम्बेडकर के पूर्वज लंबे समय तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में कार्यरत थे और भीमराव के पिता रामजी आम्बेडकर ब्रिटिश फ़ौज में सूबेदार थे और कुछ समय तक एक फ़ौजी स्कूल में अध्यापक भी रहे। उनके पिता ने मराठी और अंग्रेज़ी में औपचारिक शिक्षा की डिग्री प्राप्त की थी। वह शिक्षा का महत्त्व समझते थे और भीमराव की पढ़ाई लिखाई पर उन्होंने बहुत ध्यान दिया।
शिक्षा
अछूत समझी जाने वाली जाति में जन्म लेने के कारण अपने स्कूली जीवन में आम्बेडकर को अनेक अपमानजनक स्थितियों का सामना करना पड़ा। इन सब स्थितियों का धैर्य और वीरता से सामना करते हुए उन्होंने स्कूली शिक्षा समाप्त की। फिर कॉलेज की पढ़ाई शुरू हुई। इस बीच पिता का हाथ तंग हुआ। खर्चे की कमी हुई। एक मित्र उन्हें बड़ौदा के शासक गायकवाड़ के यहाँ ले गए। गायकवाड़ ने उनके लिए स्कॉलरशिप की व्यवस्था कर दी और आम्बेडकर ने अपनी कॉलेज की शिक्षा पूरी की। 1907 में मैट्रिकुलेशन पास करने के बाद बड़ौदा महाराज की आर्थिक सहायता से वे एलिफिन्सटन कॉलेज से 1912 में ग्रेजुएट हुए।
कुछ साल बड़ौदा राज्य की सेवा करने के बाद उनको गायकवाड़-स्कालरशिप प्रदान किया गया जिसके सहारे उन्होंने अमेरिका के कोलम्बिया विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में एम.ए. (1915) किया। इसी क्रम में वे प्रसिद्ध अमेरिकी अर्थशास्त्री सेलिगमैन के प्रभाव में आए। सेलिगमैन के मार्गदर्शन में आम्बेडकर ने कोलंबिया विश्वविद्यालय से 1917 में पी एच. डी. की उपाधी प्राप्त कर ली। उनके शोध का विषय था -'नेशनल डेवलेपमेंट फॉर इंडिया : ए हिस्टोरिकल एंड एनालिटिकल स्टडी'। इसी वर्ष उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स में दाखिला लिया लेकिन साधनाभाव में अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर पाए। कुछ दिनों तक वे बड़ौदा राज्य के मिलिटरी सेक्रेटरी थे। फिर वे बड़ौदा से बम्बई आ गए। कुछ दिनों तक वे सिडेनहैम कॉलेज, बम्बई में राजनीतिक अर्थशास्त्र के प्रोफेसर भी रहे। डिप्रेस्ड क्लासेज कांफरेंस से भी जुड़े और सक्रिय राजनीति में भागीदारी शुरू की। कुछ समय बाद उन्होंने लंदन जाकर लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स से अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी की। इस तरह विपरीत परिस्थिति में पैदा होने के बावजूद अपनी लगन और कर्मठता से उन्होंने एम.ए., पी एच. डी., एम. एस. सी., बार-एट-लॉ की डिग्रियाँ प्राप्त की। इस तरह से वे अपने युग के सबसे ज़्यादा पढ़े-लिखे राजनेता एवं विचारक थे। उनको आधुनिक पश्चिमी समाजों की संरचना की माज-विज्ञान, अर्थशास्त्र एवं क़ानूनी दृष्टि से व्यवस्थित ज्ञान था। अछूतों के जीवन से उन्हें गहरी सहानुभूति थी। उनके साथ जो भेदभाव बरता जाता था, उसे दूर करने के लिए उन्होंने आन्दोलन किया और उन्हें संगठित किया।
कार्यकारिणी सदस्य
1926 में वह बम्बई की विधान सभा के सदस्य नामित किए गए। उसके बाद वह निर्वाचित भी हुए। क्रमश: ऊपर चढ़ते हुए सन् 42-46 के दौर में वह गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी की सदस्यता तक पहुँचे। भारत के स्वाधीन होने पर जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमंडल में विधि मंत्री हुए। बाद में विरोधी दल के सदस्य के रूप में उन्होंने काम किया। भारत के संविधान के निर्माण में उनकी प्रमुख भूमिका थी। वह संविधान विशेषज्ञ थे। अनेक देशों के संविधानों का अध्ययन उन्होंने किया था। भारतीय संविधान का मुख्य निर्माता उन्हीं को माना जाता है। उन्होंने जो कुछ लिखा, उसका गहरा सम्बन्ध आज के भारत और इस देश के इतिहास से है। शूद्रों के उद्धार के लिए उन्होंने जीवन भर काम किया, पर उनका लेखन केवल शूद्रों के लिए महत्त्वपूर्ण नहीं है। उन्होंने दर्शन, इतिहास, राजनीति, आर्थिक विकास आदि अनेक समस्याओं पर विचार किया जिनका सम्बन्ध सारे देश की जनता से है। अंग्रेज़ी में उनकी रचनावली 'डॉ. बाबा साहब आम्बेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेज' नाम से महाराष्ट्र सरकार द्वारा प्रकाशित की गई है। हिन्दी में उनकी रचनावली 'बाबा साहब डॉक्टर आम्बेडकर सम्पूर्ण वाङ्मय' के नाम से भारत सरकार द्वारा प्रकाशित की गई है।
रचनावली
अंग्रेज़ी में उनकी रचनावली 'डॉ. बाबा साहब आम्बेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेज' नाम से महाराष्ट्र सरकार द्वारा प्रकाशित की गई है। हिन्दी में उनकी रचनावली 'बाबा साहब डॉक्टर आम्बेडकर सम्पूर्ण वाङ्मय' के नाम से भारत सरकार द्वारा प्रकाशित की गई है। अनेक बड़े विचारकों और विद्वानों की तरह वह समस्याओं पर निरन्तर विचार करते रहते थे। 1946 में शूद्रों पर उनकी पुस्तक प्रकाशित हुई। शूद्रों के बारे में जो बहुत तरह की धारणाएँ प्रचलित थीं, उनका उचित खण्डन करते हुए आम्बेडकर ने लिखा: शूद्रों के लिए कहा जाता है कि वे अनार्य थे, आर्यों के शत्रु थे। आर्यों ने उन्हें जीता था और दास बना लिया। ऐसा था तो यजुर्वेद और अथर्ववेद के ॠषि शूद्रों के लिए गौरव की कामना क्यों करते हैं? शूद्रों का अनुग्रह पाने की इच्छा क्यों प्रकट करते हैं? शूद्रों के लिए कहा जाता है कि उन्हें वेदों के अध्ययन का अधिकार नहीं है। ऐसा था तो शूद्र सुदास ऋग्वेद के मन्त्रों के रचनाकार कैसे हुए? शूद्रों के लिए कहा जाता है, उन्हें यज्ञ करने का अधिकार नहीं है। ऐसा था तो सुदास ने अश्वमेध कैसे किया? शतपथ ब्राह्मण शूद्र को यज्ञकर्ता के रूप में कैसे प्रस्तुत करता है? और उसे कैसे सम्बोधन करना चाहिए, इसके लिए शब्द भी बताता है। शूद्रों के लिए कहा जाता है कि उन्हें उपनयन संस्कार का अधिकार नहीं है। यदि आरम्भ से ही ऐसा था तो इस बारे में विवाद क्यों उठा? बदरि और संस्कार गणपति क्यों कहते हैं कि उसे उपनयन का अधिकार है? शूद्र के लिए कहा जाता है कि वह सम्पत्ति संग्रह नहीं कर सकता। ऐसा था तो मैत्रायणी और कठक संहिताओं में धनी और समृद्ध शूद्रों का उल्लेख कैसे है? शूद्र के लिए कहा जाता है कि वह राज्य का पदाधिकारी नहीं हो सकता। ऐसा था तो महाभारत में राजाओं के मंत्री शूद्र थे, ऐसा क्यों कहा गया? शूद्र के लिए कहा जाता है कि सेवक के रूप में तीनों वर्णों की सेवा करना उसका काम है। यदि ऐसा था तो शूद्र राजा कैसे हुए जैसा कि सुदास के उदाहरण से, तथा सायण द्वारा दिए गए अन्य उदाहरणों से मालूम होता है?उन्होंने कई पुस्तकें लिखने की योजना बनाई थी, पुस्तकों के कुछ अध्याय लिखे थे, कुछ पूरे और कुछ अधूरे। रचनावली के तीसरे खंड में ऐसी कुछ सामग्री पहली बार प्रकाशित हुई है। इस सामग्री के बारे में सम्पादकों ने भूमिका में जो कुछ कहा है, उससे यही पत चलता है कि 1956 में डॉ. आम्बेडकर के निधन से उनका बहुत सा काम अधूरा रह गया।
सामाजिक सुधार
बी. आर. आम्बेडकर के नेतृत्व में उन्होंने अपना संघर्ष तेज़ कर दिया। सामाजिक समानता के लिए वे प्रयत्नशील हो उठे। आम्बेडकर ने 'ऑल इण्डिया क्लासेस एसोसिएशन' का संगठन किया। दक्षिण भारत में बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में गैर-ब्राह्मणों ने 'दि सेल्फ रेस्पेक्ट मूवमेंट' प्रारम्भ किया जिसका उद्देश्य उन भेदभावों को दूर करना था जिन्हें ब्राह्मणों ने उन पर थोप दिया था। सम्पूर्ण भारत में दलित जाति के लोगों ने उनके मन्दिरों में प्रवेश-निषेध एवं इस तरह के अन्य प्रतिबन्धों के विरुद्ध अनेक आन्दोलनों का सूत्रपात किया। परन्तु विदेशी शासन काल में अस्पृश्यता विरोधी संघर्ष पूरी तरह से सफल नहीं हो पाया। विदेशी शासकों को इस बात का भय था कि ऐसा होने से समाज का परम्परावादी एवं रूढ़िवादी वर्ग उनका विरोधी हो जाएगा। अत: क्रान्तिकारी समाज-सुधार का कार्य केवल स्वतन्त्र भारत की सरकार ही कर सकती थी। पुन: सामाजिक पुनरुद्वार की समस्या राजनीतिक एवं आर्थिक पुनरुद्वार की समस्याओं के साथ गहरे तौर पर जुड़ी हुई थी। जैसे, दलितों के सामाजिक पुनरुत्थान के लिए उनका आर्थिक पुनरुत्थान आवश्यक था। इसी प्रकार इसके लिए उनके बीच शिक्षा का प्रसार और राजनीतिक अधिकार भी अनिवार्य थे।
छुआछूत को अवैध घोषित किया गया। अब कुएँ, तालाबों, स्नान घाटों, होटल, सिनेमा आदि पर इस आधार पर प्रतिबन्ध नहीं लगाए जा सकते थे। संविधान में लिखित 'डायरेक्टिव प्रिंसीपुल्स' में भी इन बातों पर ज़ोर दिया गया।
दु:ख तो इस बात का है कि इन सबके बावजूद आज भी जाति प्रथा हमारे बीच और विशेष रूप से ग्रामीण समाज में जीवित है और इससे समाज और देश को काफ़ी हानि हो रही है।

सफलता कैसे जायें

सफलता कैसे पायें : जल्दी का काम शैतान का
मराठा सैनिकों के प्रमुख शिवाजी मुगलों के साथ युद्ध में पराजित हो गए थे, इसलिए वे अपने निकट सहयोगियोंके साथ युद्धभूमि से पलायन कर गए। वे सब जंगल के रास्ते आगे की ओर जाने लगे। काफी दूरी तय करने के बाद वे एक पड़ाव पर पहुंचे। शिवाजी ने अपने सहयोगियों से कहा, “अगर हम सब एक साथ समूह बनाकर चलेंगे तो हमें पहचान लिया जाएगा, इसलिए हम सबको अलग-अलग रास्तों पर चलना चाहिए। हम सब तीन दिन बाद राजगढ़ किले के समीप वाले पुराने विश्राम-गृह में फिर से एकत्र होंगे।’
शिवाजी के सहयोगियों ने उनकी इस बात का विरोध किया, परंतु शिवाजी ने उनके इस विरोध को नहीं स्वीकारा। वे अकेले ही अपने रास्ते पर चल पड़े। शाम होते-होते वे बहुत थक चुके थे। उन्हें रात्रि के लिए भोजन तथा विश्राम की आवश्यकता थी। दूर कहीं उन्हें एक दीपक जलता हुआ नज़र आया। इसे देख उनकी आशाएं जाग्रत हुई। वे जल्दी से उस ओर चल पड़े और जल्दी ही एक झोपड़े के पास जा पहुंचे।
उस झोपड़े में एक बूढ़ी महिला आग पर खाना पका रही थी। शिवाजी के कदमों की आहट सुनकर उसने अपना सिर उठाया। उसने एक अनजान व्यक्ति को अपने दरवाजे पर खड़े देखा। बुढ़िया ने उस व्यक्ति से अपना परिचय देने को कहा। शिवाजी ने अपना सही परिचय नहीं दिया क्योंकि उन्हें उसकी ओर से खतरा ही नज़र आ रहा था। शिवाजी ने अपने-आपको एक गरीब मुसाफिर बताया और कहा कि वे बहुत भूखे हैं। वे सुबह से ही पैदल चल रहे हैं। सारे दिन में उन्होंने थोड़े से फल ही खाए हैं। बूढ़ी महिला ने विनम्र भाव से शिवाजी को बैठने के लिए कहा, और कहा कि वह उनके भोजन के लिए उबाली हुई मकई लेकर आ रही है। उसने अपनी गरीबी के कारण शिवाजी को बढ़िया भोजन खिलाने में असमर्थता जताई।
शिवाजी ने उसका धन्यवाद किया और मुंह-हाथ धोकर खाने के लिए बैठ गए। बूढ़ी महिला ने उनके सामने एक प्लेट रखी तथा गरमा-गरम भोजन परोसा। शिवाजी ने प्लेट से मुट्टी-भर कर उबली मकई उठानी चाही, लेकिन हाथ में दर्द और खाना गरम होने की वजह से वे कराह उठे तथा जल्दी से मकई वापस प्लेट में रख दी और उसके ठंडा होने का इंतजार किया।
बूढ़ी महिला, जो उन्हें देख रही थी, ने कहा कि वे बिल्कुल महाराज शिवाजी की तरह लगते हैं। शिवाजी ने आश्चर्यचकित होकर पूछा, ‘‘शिवाजी की तरह, क्यों?’
बूढ़ी महिला ने जवाब दिया, ‘शिवाजी छोटे किलों को छोड़ बड़े किलों पर कब्जा करने में लगे रहते हैं। वे बेहद जल्दबाजी करते हैं। वे नहीं जानते कि उन्हें चरणबद्ध तरीके से पहले छोटे किलों पर कब्जा करना चाहिए तथा बाद में बड़े किलों पर कब्जा करना चाहिए। जल्दबाजी में नुकसान उठाना पड़ता है। इससे मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। तुमने भी जल्दबाजी की। गरम परोसा खाना पहले किनारों पर ठंडा होता है और बाद में मध्य से ठंडा होता है। तुमने किनारे से खाना उठाने की बजाय बीच में से खाना उठाया, इसलिए तुम्हारी उंगलियां जल गई।’
शिवाजी को उस बूढ़ी महिला से एक बहुत बड़ी सीख मिल गई थी। उन्होंने आराम से भोजन किया तथा तब तक रुके रहे जब तक कि उस बूढ़ी महिला ने भी भोजन नहीं कर लिया। शिवाजी ने बरतनों को धोने में भी उस महिला का हाथ बंटाया। उसके बाद उस महिला ने शिवाजी के सोने के लिए जमीन पर चटाई बिछा दी। रातभर चटाई पर लेट कर शिवाजी ने अपनी थकान दूर की।
अगले दिन शिवाजी ने उस बूढ़ी महिला के घर से विदाई ली और कहा, “मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि आज से मैं किसी भी कार्य में जल्दबाजी नहीं करूंगा। मैं जानता हूं कि जल्दबाजी करने से कोई भी मुश्किल में पड़ सकता है। यह सबक सिखाने के लिए मैं आपका धन्यवाद करता हूं।’
उस बूढ़ी महिला ने खुश होकर कहा, “अच्छी बात है। मैं आशा करती हूं कि शिवाजी भी यह सबक सीखें। काश! मैं शिवाजी को संपूर्ण साम्राज्य पर अधिकार स्थापित करते हुए देख सकूं।’
शिवाजी ने तुरंत उत्तर दिया, “शिवाजी को यह सबक मिल चुका है, माताजी।” यह कहकर शिवाजी उस बूढ़ी महिला के चरणों में गिर गए। बूढ़ी महिला को शिवाजी की यह बात समझ नहीं आ रही थी।
शिवाजी ने कहा, “माताजी। मैं ही शिवाजी हूं। मुझे आशीर्वाद दीजिए। आपने मुझे जीत की राह दिखा दी है।’ शिवाजी ने उस महिला का दाहिना हाथ उठाया तथा अपने सिर पर रखा। तत्पश्चात् उस महिला ने शिवाजी को विजयी होने का आशीर्वाद दिया। उसके बाद शिवाजी अपनी राह पर चल पड़े।
शिक्षा : इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती हैं कि हमें अपना काम सही तरीके से और धेयपूर्वक करना चाहिए/ जल्दबाजी में काम बनते नहीं अपितु बिगड़ते ही हैं/ धेयपूर्वक कार्य करने से हमारे सफल होने के अवसर अधिक हो जाते हैं.
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(एक सच्ची घटना)

(एक सच्ची घटना)
दोस्तों ये कहानी सत्य घटना पर आधारित है। एक ऐसे  बालक की कहानी जो दिल का सच्चा और ईमानदार था। ईमानदारी की राह में उसे कई परेशानियों का सामना करना पड़ा। स्कूल जाते समय उसने एक कथन पढ़ा "हर प्रक्रिया की अधिकतम सीमाएं होती है।" उसे यह एक बात हमेशा याद रहती थी। इस कथन को उसने अपने जीवन में उतार लिया। उसे यह कथन हमेशा राहत देती थी।
    सन् 1982 की बात थी। एक कम जोर साधारण सा बालक एक गांव में रहा करता था। पढ़ने में साधारण सा बालक, मासूम सा चेहरा, आर्थिक रूप से कमज़ोर होने के कारण उसे आर्थिक और सामाजिक तंगी का सामना करना पढता था। सभी प्रक्रिया की अपनी एक सीमाएं है। कथन पढ़ कर यह सोचता -यह परेशानियां ज्यादा दिन तक नही टिक पायेंगी। बाल्यवस्था में ही माँ का देहांत हो गया। अब वह स्वयं को असहाय समझने लगा। पैसों की कमी के कारण वह लगातार एक स्कूल में नहीं पढ़ पाता था। जब कभी स्कूल में पैसा जमा करने की बारी आती तो उसे मजबूरन स्कूल बदलना पड़ता था,  क्यों कि उसके पास पर्याप्त पैसे भी नहीं होते कि वह शाम का भोजन मन भर कर ले। इस प्रकार कर के वह किसी तरह मैट्रिक की परीक्षा को पास कर लिया। 10 वीं की परीक्षा पास करने के बाद वह शहर को निकल गया। शहर में जाने के बाद, पहचान के आभाव में उसे कोई भी नौकरी नहीं देता। मजबूरन उसे मजदूरी करनी पड़ी। प्रति दिन पैसा जुटा कर वह अपना खाना खाता और कुछ पैसा बचा कर रख लेता। पैसा इकठ्ठा होने के बाद उसने वहां 12वीं में प्रवेश लिया। ऐसा दो साल तक चलता रहा। इस समयावधि में उसने अपने जीवन में कभी मुड़ कर नहीं देखा। 2 साल बाद वह 12 वीं पास कर गया।
    एक दिन वह मजदूरी के लिये घर से निकला रस्ते में उसने एक कैंप लगा हुआ देखा, उसे वह कैम्प बहुत अच्छा लगा। उत्सुकतावश वह कैंप के पास गया।  पास जा कर उस बालक ने पूछा- 'यहां क्या हो रहा है? क्या मैं भी यहां आ सकता हूँ? ' वहां के एक अधिकारी ने उसकी शैक्षिक योग्यता पूछी और उसे कैम्प में निमंत्रण दे दिया।
    वास्तव में वह सैनिकों की नियुक्ति के लिए कैम्प था। कैंप में, साथ ही नया रोड भी बनया जा रहा था। दोपहर के 2 बजे सभी बच्चों को 5 कि.मी. की दौड़ के लिए तैयार किया गया। उस नए बने रोड पर सभी को खड़ा कर दिया गया। दौड़ के लिए आज्ञा दे दी गयी। कड़ी धूप में सभी बच्चे नई तारकोल वाली बनी सड़क से उतर के किनारे किनारे  दौड़ने लगे। लेकिन इतनी धूप हो ने के बाद भी वह उसी नई बनी सड़क पर दौड़ता रहा। इस तरह से वह सबसे अंतिम नंबर पर रहा। अंत में वहां का सबसे श्रेष्ठ अधिकारी आया और सभी के तलवे की जाँच की और उस बालक को छोड़ कर सभी को बाहर कर दिया। सभी अचंभित थे, आखिर ये हो क्या रहा है। उसके बाद उस अधिकारी ने उस बालक की खूब सरहना की। उसे अगले ही दिन  उसे सभी वास्तविक प्रमाण पत्र जमा करने को कहा गया। लेकिन उसके सारे प्रमाण पत्र घर पर थे। उसने अपनी सारी परेशानियाँ उस अधिकारी को बताईं। उस अधिकारी ने उसे 24 धंटे का समय दिया और कहा यदि तुम सारे प्रमाण पत्र यहां इसी समयावधि में जाम कर दोगे तो हम तुम्हे रख लेंगे। वह बालक किसी तरह घर पर पहूंच गया और अपने सारे प्रमाण पत्र वहां उपलब्ध करवा दिया।
    दोस्तों, ऐसी कहानियाँ हम कई बार सुना करतें है, और अच्छी भी लगती हैं। लेकिन इन कहानियों से कुछ विशेष कम ही चुन पातें हैं। दोस्तों, वह एक सामान्य बालक था, एक सामन्य से बालक ने एक कथन को अपने जीवन में एक पथ प्रदर्शक की तरह प्रयोग किया। किसी एक अच्छे कथन को अपने जीवन का पथ प्रदर्शक बनाइये और अपने पर विश्वास रखिये, आप ज़रूर सफल होंगें।

श्री गणेशाय जी नम:

श्री गणेशाय जी नम:
हे गणेश देवता आप विशाल रूप तथा सूर्य के समान चमकने वाले है ।
आपसे आशा और मांग है कि हमेशा हमारे सभी कार्यों में कोई बाधा न हो ।

    आरती श्री गणेश जी की
जय   गणेश,   जय   गणेश,   जय   गणेश   देवा
जय गणेश, जय गणेश, जय गणेश देवा ।
माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा ॥
एक दंत दयावंत, चार भुजाधारी ।
माथे पर तिलक सोहे, मूसे की सवारी ॥
पान चड़ें, फूल चड़ें और चड़ें मेवा ।
लडुअन को भोग लगे, संत करे सेवा ॥
अंधें को आँख देत, कोड़िन को काया ।
बांझन को पुत्र देत, निर्धन को माया ॥
सूरश्याम शारण आए सफल कीजे सेवा |
माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा ॥
जय गणेश, जय गणेश, जय गणेश देवा ॥

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